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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780
आईएसबीएन :9781613015179

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


मैंने कहा- ''हाँ-हाँ शौक से कहिए?''

उन्होंने सिर झुकाकर शर्माते हुए कहा- ''मैं जानता कि तुम इतनी रूपवती हो तो मैं तुमसे विवाह न करता। अब तुम्हें देखकर मुझे मालूम हो रहा है कि मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया है। मैं किसी तरह तुम्हारे योग्य न था।''

मैंने पान का बीड़ा उन्हें देते हुए कहा- ''ऐसी बातें न कीजिए। आप जैसे हैं मेरे सर्वस्व हैं। मैं आपकी दासी बनकर अपने भाग्य को धन्य मानती हूँ।''

दूसरा स्टेशन आ गया। गाड़ी रुकी। स्वामी चले गए। जब-जब गाड़ी रुकती थी, वह आकर दो-चार बातें कर जाते थे। शाम को हम लोग बनारस पहुँच गए। मकान एक गली में है और मेरे घर से बहुत छोटा है। इन कई दिनों में यह भी मालूम हो रहा है कि सासजी स्वभाव की रूखी हैं, लेकिन अभी किसी के बारे में कुछ नहीं कह सकती। संभव है, मुझे भ्रम हो रहा हो। फिर लिखूँगी। मुझे इसकी चिंता नहीं कि घर कैसा है, आर्थिक दशा कैसी है, सास-ससुर कैसे हैं। मेरी इच्छा है कि यहाँ सभी मुझसे खुश रहें। पतिदेव को मुझसे प्रेम है, यह मेरे लिए काफ़ी है। मुझे और किसी बात की परवा नहीं। तुम्हारे बहनोईजी का मेरे पास बार-बार आना सासजी को अच्छा नहीं लगता। वह समझती हैं कहीं यह सिर न चढ़ जाए। क्यों मुझ पर उनकी यह अकृपा है, कह नहीं सकती, पर इतना जानती हूँ कि वह अगर इस बात से नाराज़ होती हैं तो हमारे ही भले के लिए, वह ऐसी कोई बात क्यों करेंगी, जिसमें हमारा हित न हो। अपनी संतान का अहित कोई माता नहीं कर सकती। मुझ ही में कोई बुराई उन्हें नज़र आई होगी। दो-चार दिन में आप ही मालूम हो जाएगा। अपने यहाँ के समाचार लिखना। जवाब की आशा एक महीने के पहले तो है नहीं, यों तुम्हारी खुशी।

तुम्हारी
चंदा  

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