कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
देहली
1-1-26
प्यारी बहन,
तुम्हारे प्रथम मिलन की कुतूहलमय कथा पढ़कर चित्त प्रसन्न हो गया। मुझे तुम्हारे ऊपर हसद हो रहा है। मैंने समझा था तुम्हें मुझ पर हसद होगा, पर क्रिया उलटी हो गई। तुम्हें चारों ओर हरियाली ही नज़र आती है, मैं जिधर नज़र डालती हूँ सूखे रेत और नग्न टीलों के सिवा और कुछ नहीं! खैर! अब कुछ मेरा वृत्तांत सुनो-
''अब जिगर थाम के बैठो मेरी बारी आई''।
विनोद की अविचलित दार्शनिकता अब असह्य हो गई है। कुछ विचित्र जीव हैं, घर में आग लगे, पत्थर पड़े, इनकी बला से। इन्हें मुझ पर जरा भी दया नहीं आती। मैं सुबह से शाम तक घर के झँझटों में कुढ़ा करूँ, इन्हें कुछ परवा नहीं। ऐसी सहानुभूति से खाली आदमी कभी नहीं देखा था। इन्हें तो किसी जंगल में तपस्या करनी चाहिए थी। अभी तो खैर दो ही प्राणी हैं, लेकिन कहीं बाल-बच्चे हो गए, तब तो मैं वेमौत मर जाऊँगी। ईश्वर न करे वह दारुण विपत्ति मेरे सिर पड़े।
चंदा, मुझे अब दिल से लगी हुई है कि किसी भाँति इनकी यह समाधि भंग कर दूँ। मगर कोई उपाय सफल नहीं होता, कोई चाल ठीक नहीं पड़ती। एक दिन मैंने उनके कमरे के लैंप का बल्ब तोड़ दिया। कमरा अँधेरा पड़ा रहा। आप सैर करके आए तो कमरा अँधेरा देखा। मुझसे पूछा, मैंने कह दिया बल्व टूट गया। बस, आप ने भोजन किया और मेरे कमरे में आकर लेट रहे। पत्रों और उपन्यासों की ओर देखा तक नहीं, न जाने वह उत्सुकता कहाँ, विलीन हो गई। दिन-भर गुज़र गया, आपको बल्व लगवाने की कोई फ़िक्र नहीं। आखिर मुझी को बाजार से लाना पड़ा।
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