कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
आनंद ने आँगन में रुककर कहा- ''क्या तुम चाहती हो कि तुम किसी को मार डालो और मैं न बोलूँ?''
''हाँ मैं तो डायन हूँ आदमियों को मार डालना ही तो मेरा काम है। ताज्जुब है कि मैंने तुम्हें क्यों न मार डाला।''
''तो पछतावा क्यों हो रहा है, धेले की संखिया में तो काम चलता है।''
''अगर तुम्हें इस तरह औरत को सिर चढ़ाकर रखना है तो कहीं और ले जाकर रखो। इस घर में तुम्हारा निबाह अब न होगा।''
''मैं खुद इसी फ़िक्र में हूँ तुम्हारे कहने की जरूरत नहीं।''
''मैं भी समझ लूँगी कि मैंने लड़का ही नहीं जना।''
''मैं भी समझ लूँगा कि मेरी माता मर गई।''
मैं आनंद का हाथ पकड़कर जोर से खींच रही थी कि उन्हें वहाँ से हटा ले जाऊँ, मगर वह बार-बार मेरा हाथ झटक देते थे। आखिर जब अम्माँजी अपने कमरे में चली गई तो वह अपने कमरे में आए और सिर थामकर बैठ गए।
मैंने कहा- ''यह तुम्हें क्या सूझी?''
आनंद ने भूमि की ओर ताकते हुए कहा- ''अम्माँ ने आज नोटिस दे दिया।''
''तुम खुद ही उलझ पड़े, वह बेचारी तो कुछ बोली ही नहीं।''
''मैं ही उलझ पड़ा!''
''और क्या। मैंने तो तुमसे फ़रियाद न की थी।''
''पकड़ न लाता तो अम्माँ ने तुम्हें अधमरा कर दिया होता। तुम उनका क्रोध नहीं जानतीं।''
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