कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
मैं घर पहुँचकर बैठी ही थी कि कुसुम आ पहुँची। अबकी यह मोटर में अकेली न थी-विनोद बैठे हुए थे। मैं उन्हें देखकर ठगी रह गई। चाहिए तो यह था कि मैं दौड़कर उनका हाथ पकड़ लेती और मोटर से उतार लाती, लेकिन मैं जगह से हिली तक नहीं। मूर्ति की भाँति अचल बैठी रही। मेरी मानिनी प्रकृति अपना उदंड स्वरूप दिखाने के लिए विकल हो उठी। एक क्षण में कुसुम ने विनोद को उतारा और उनका हाथ पकड़े हुए ले आई। उस वक्त मैंने देखा कि विनोद का मुख बिलकुल पीला पड़ गया है और वह इतने अशक्त हो गए हैं कि अपने सहारे खड़े भी नहीं रह सकते। मैंने घबराकर पूछा- ''क्यों तुम्हारा-यह क्या हाल है?''
कुसुम ने कहा- ''हाल पीछे पूछना, जरा इनकी चारपाई चटपट बिछा दो और थोड़ा-सा दूध मँगवा लो।''
मैंने तुरंत चारपाई बिछाई और विनोद को उस पर लिटा दिया। दूध तो रखा ही हुआ था। कुसुम इस वक्त मेरी स्वामिनी बनी हुई थी। मैं उसके इशारे पर नाच रही थी। चंदा, उस वक्त मुझे ज्ञात हुआ कि कुसुम पर विनोद को जितना विश्वास है, वह मुझ पर नहीं। मैं इस योग्य हूँ ही नहीं। मेरा दिल सैकड़ों प्रश्न पूछने के लिए तड़फड़ा रहा था, लेकिन कुसुम एक पल के लिए भी विनोद के पास से न टलती थी। मैं इतनी मूर्ख हूँ कि अवसर पाने पर इस दशा में भी मैं विनोद से प्रश्नों का ताँता बाँध देती। विनोद को जब नींद आ गई, तो मैंने आँखों में आँसू भरकर कुसुम से पूछा- ''बहन, इन्हें क्या शिकायत है? मैंने तार भेजा उसका जवाब नहीं आया। रात दो बजे एक जरूरी और जवाबी तार भेजा। दस बजे तक तार-घर में बैठी जवाब की राह देखती रही। वहीं से लौट रही थी जब तुम रास्ते में मिलीं। यह तुम्हें कहाँ मिल गए?
कुसुम मेरा हाथ पकड़कर दूसरे कमरे में ले गई और बोली- ''पहले तुम यह बताओ कि भुवन का क्या मुआमला था? देखो साफ़ कहना।''
मैंने आपत्ति करते हुए कहा- ''कुसुम तुम यह प्रश्न पूछकर मेरे साथ अन्याय कर रही हो। तुम्हें खुद समझ लेना चाहिए था कि इस बात में कोई सार नहीं है। विनोद को केवल भ्रम हो गया।''
''बिना किसी कारण के?''
''हाँ, मेरी समझ में तो कोई कारण न था।''
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