कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
''मैं इसे नहीं मानती। यह क्यों नहीं कहती कि विनोद को जलाने, चिढ़ाने और जगाने के लिए तुमने यह स्वाँग रचा था।''
कुसुम की सूझ पर चकित होकर मैंने कहा- ''वह तो केवल दिल्लगी थी।''
''तुम्हारे लिए दिल्लगी थी, विनोद के लिए वज्राघात था। तुमने इतने दिनों उनके साथ रहकर भी उन्हें नहीं समझा। तुम्हें अपने बनाव-सँवार के आगे उन्हें समझने की कहाँ फुरसत। कदाचित् तुम समझती हो कि तुम्हारी वह मोहिनी मूर्ति ही सब कुछ है। मैं कहती हूँ इसका मूल्य दो-चार महीनों के लिए हो सकता है। स्थाई वस्तु कुछ और ही है।''
मैंने अपनी भूल स्वीकार करते हुए कहा- ''विनोद को मुझसे कुछ पूछना तो चाहिए था?''
कुसुम ने हँसकर कहा- ''यही तो वह नहीं कर सकते। तुमसे ऐसी बातें पूछना उनके लिए असंभव है। वह उन प्राणियों में हैं जो स्त्री की आँखों से गिरकर जीते नहीं रह सकते। स्त्री या पुरुष, किसी के लिए भी वह किसी प्रकार का धार्मिक या नैतिक बंधन नहीं रखना चाहते। वह प्रत्येक प्राणी के लिए पूर्ण स्वाधीनता के समर्थक हैं। मन और इच्छा के सिवा वह और कोई बंधन स्वीकार नहीं करते। इस विषय पर मेरी उनसे खूब बातें हुई हैं। खैर, मेरा पता उन्हें मालूम था ही, यहाँ से सीधे मेरे पास पहुँचे। मैं समझ गई कि आपस में पटी नहीं। मुझे तुम्हीं पर संदेह हुआ।''
मैंने पूछा- ''क्यों? मुझ पर तुम्हें क्यों संदेह हुआ?''
''इसलिए कि मैं तुम्हें पहले देख चुकी थी।''
''अब तो तुम्हें मुझ पर संदेह नहीं है?''
''नहीं, मगर. इसका कारण तुम्हारा संयम नहीं, परंपरा है। मैं इस समय स्पष्ट बातें कर रही हूँ इसके लिए क्षमा करना।''
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