कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
|
8 पाठकों को प्रिय 133 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
''तुम समझती हो कि मुझे विनोद से प्रेम नहीं है?''
''नहीं, विनोद से तुम्हें जितना प्रेम है, उससे अधिक अपने आपसे है। कम-से-कम दस दिन पहले यही बात थी अन्यथा यह नौबत ही क्यों आती। विनोद यहाँ से सीधे मेरे पास गए और दो-तीन दिन रहकर बंबई चले गए। मैंने बहुत पूछा पर कुछ बतलाया नहीं। वहाँ उन्होंने एक दिन विष खा लिया।''
मेरे चेहरे का रंग उड़ गया।
''बंबई पहुँचते ही उन्होंने मेरे पास एक खत लिखा था। उसमें यहाँ की सारी बातें लिखी थीं और अंत में लिखा था मैं इस जीवन से तंग आ गया हूँ अब मेरे लिए मौत के सिवा और कोई उपाए नहीं है।''
मैंने एक ठंडी साँस ली।
''मैं यह पत्र पाकर घबरा गई और उसी वक्त बंबई रवाना हो गई। जब वहाँ पहुँची तो विनोद को मरणासन्न पाया। जीवन की कोई आशा नहीं थी। मेरे एक संबंधी वहाँ डॉक्टरी करते हैं। उन्हें लाकर दिखाया तो वह बोले- इन्होंने जहर खा लिया है। तुरंत दवा दी गई। तीन दिन तक डाँक्टर साहब ने दिन-को-दिन और रात-को-रात न समझा, और मैं तो एक क्षण के लिए विनोद के पास से न हटी। तब तीसरे दिन इनकी आखें खुलीं। तुम्हारा पहला तार मुझे मिला था, पर उसका जवाब देने की किसे फुरसत थी। तीन दिन और बंबई रहना पड़ा। विनोद इतने कमजोर हो गए थे कि इतना लंबा सफ़र करना उनके लिए असंभव था। चौथे दिन मैंने जब उनसे यहाँ आने का प्रस्ताव किया, तो बोले मैं अब वहाँ न जाऊँगा। जब मैंने बहुत समझाया, तब इस शर्त पर राजी हुए कि मैं पहले आकर यहाँ की परिस्थिति देख जाऊँ।''
मेरे मुँह से निकला- ''हा! ईश्वर, मैं ऐसी अभागिनी हूँ।''
|