कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
''अभागिनी नहीं हो बहन, केवल तुमने विनोद को समझा न था। वह तो चाहते थे कि मैं अकेली आऊँ, पर मैंने उन्हें इस दशा में वहाँ छोड़ना उचित न समझा। परसों हम दोनों वहाँ से चले। यहीं पहुँचकर विनोद तो वेटिंगरूम में ठहर गए, मैं पता पूछती हुई भुवन के पास पहुँची। भुवन को मैंने इतना फटकारा कि वह रो पड़ा। उसने मुझसे यहाँ तक कह डाला कि तुमने उसे बुरी तरह दुत्कार दिया है। आँखों का बुरा आदमी है, पर दिल का बुरा नहीं। उधर से जव मुझे संतोष हो गया और रास्ते में तुमसे भेंट हो जाने पर रहा सहा भ्रम भी दूर हो गया, तो मैं विनोद को तुम्हारे पास लाई। अब तुम्हारी वस्तु तुम्हें सौंपती हूँ। मुझे आशा है कि इस दुर्घटना ने तुम्हें इतना सचेत कर दिया होगा कि फिर ऐसी नौबत न आवेगी। आत्मसमर्पण करना सीखो। भूल जाओ कि तुम सुंदरी हो। आनंदमय जीवन का यही मूल मंत्र है। मैं डींग नहीं मारती, लेकिन चाहूँ तो आज विनोद को तुमसे छीन सकती हूँ लेकिन रूप में मैं तुम्हारे तलुवों के बराबर भी नहीं। रूप के साथ अगर तुम सेवाभाव धारण कर सको, तो तुम अजेय हो जाओगी.. ''
मैं कुसुम के पैरों पर गिर पड़ी और रोती हुई बोली- ''बहन, तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है, उसके लिए मरते दम तक तुम्हारी ऋणी रहूँगी। तुमने न सहायता की होती, तो आज न जाने मेरी क्या गति होती।''
बहन, कुसुम कल चली जाएगी। मुझे तो अब वह देवी-सी दीखती है। जी चाहता है उसके चरण धो-धोकर पीऊँ। उसके हाथों मुझे विनोद ही नहीं मिले हैं, सेवा का सच्चा आदर्श और स्त्री का सच्चा कर्तव्य-ज्ञान भी मिला है। आज से मेरे जीवन का नवयुग आरंभ होता है जिसमें भोग और विलास की नहीं, सहृदयता और आत्मीयता की प्रधानता होगी।
पद्मा
3. दोनों तरफ से
पंडित श्यामसरूप पटना के एक नौजवान वकील थे। उन बूढ़े नौजवानों की तरह नहीं जो आजकल सभ्य सोसाइटी में अक्सर नज़र आया करते हैं, जिनकी सारी आंतरिक एवं वाह्य शक्ति जबान में एकत्रित रहती है। नहीं, हमारे पंडित जी इस वर्ग के बूढ़े नौजवानों में न थे। वह ज़िंदादिल नौजवानों में थे। जबान से कम और दिलो-दिमाग, हाथ और पैर से ज्यादा काम लेते थे। एक बार दिल में जो उसूल कायम कर लेते, उस पर दृढ़ रहते थे। उनमें एक बड़ा गुण यह था कि वह बहुत कामों में एक साथ हाथ न डालते। जो लोग चारों तरफ़ हाथ फैलाते हैं, उन्हें क्रुछ भी नहीं मिलता। जो शख्स एक दर्जन संस्थाओं का सेक्रेटरी और आधी दर्जन सोसाइटियों का प्रेसिडेंट है, उससे अमली काम की उम्मीद अगर भोले-भाले करें तो करें। कोई अक्ल ठीक रखने वाला शख्स नहीं कर सकता। उस ग़रीब की सारी कुव्वत और सरगर्मी जबान के रास्ते उड़ जाती है।
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