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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780
आईएसबीएन :9781613015179

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


पंडित जी शायद इस नुक्ते को खूब समझते थे। उन्होंने अछूत जातों के सुधार की एक छोटी-सी संस्था खोल रखी थी और अपने वक्त और आमदनी का एक अल्प भाग इस सत्कार्य की नज़र करते थे। शाम हुई, कचहरी से आए, कुछ नाश्ता किया, बाइसिकिल उठाई और शहर से मिले देहातों में जा पहुँचे। वहाँ कहीं चमारों के साथ बैठे बात कर रहे हैं, कहीं डोमों के बीच में बैठे हैं और उनसे उनकी ठेठ बोली में गुफ्तगू छिड़ी हुई है। उनके बच्चों को गोद में लेते हैं, प्यार करते हैं। इतवार के दिन या अगर कोई दूसरी छुट्टी आ पड़ती तो तिलिस्मी लालटेन के तमाशे दिखाने जाया करते। उनकी सोहबत और हमदर्दी ने साल ही भर में उनके परगने के अछूतों की रहन-सहन में कुछ सुधार कर दी थी। लाशखोरी बिलकुल बंद हो गई, शराबखोरी बिलकुल तो बंद नहीं हुई, मगर इसमें आए दिन जो वारदातें होती रहती थीं, उनमें कमी हो जाने से पुलिस इंस्पेक्टर हामिद खाँ अलबत्ता नाराज हो गए। रफ्ता-रफ्ता पंडित जी की इस हमदर्दी ने अछूत जातों के साथ बिरादरना ताल्लुक़ात क़ायम कर दिए। उनके परगने में तीन सौ मौजे थे और नीची जाति की तादाद छ: हजार से कम न थी। इन सबों के साथ पंडित जी को दोस्ताना-ओ-विरादराना लगाव था। उनकी शादियों में शरीक होते और रिवाज के मुताविक़ व्यवहार ले जाते। अगर उनमें कोई फ़साद होता तो अक्सर फ़रियाद पंडित जी के यहाँ ही आती थी। मुमकिन न था कि पंडित जी उनमें से किसी के बीमार होने की खबर पाएँ और बीमार का हाल-चाल पूछने के लिए न जाएँ। उन्होंने वैद्यक में खुद भी थोड़ी-सी शिक्षा पाई थी। खुद मरीज की तीमारदारी करते और ज्यादा तकलीफ़ में पाते तो रुपए-पैसे से भी इमदाद करते। मगर बेशतर सूरतों में उनकी हमदर्दी और मुहब्बत काफ़ी होती थी। ऐसे कामों के लिए रुपए की इतनी जरूरत नहीं होती, जितनी बेगरज इंसानियत और क़ौमी खिदमत के जोश की। उनकी साल-भर की मुस्तकिल और सरगर्म हमदर्दाना कोशिशों ने इस फ़िरके में एक इंक़लाव-सा पैदा कर दिया। उनके घर और झोंपड़े, उनकी खानपान, उनके रस्मो-रिवाज़ सब गोया खराद पर चढ़ गए और सबसे बड़ी बात यह हुई कि ये लोग अपनी इज़्ज़त करना सीख गए। पहले दो-चार जाहिल-जपट जमींदारों ने उन्हें दिक किया, मगर जब देखा कि इन्हें कुछ और ही धुन सवार है तो खामोश हो रहे। दो-चार कलुषित मन, अज्ञानी आदमियों ने इस मामले में पुलिस से चाराजोई करनी चाही। दारोग़ा हामिद खाँ साहब आमादा भी थे, मगर चमारों और डोमों के पास क्या रखा था जो किसी की दाल गलती? पंडित जी के वे ताल्लुक़ात बढ़ते गए। आखिर यहाँ तक नौबत पहुँची कि एक बार चमारों के चौधरी की लड़की की शादी में उन्होंने उनके साथ खाना खा लिया।

पंडित श्यामसरूप की बीवी का नाम कोलेसरी देवी था। कोलेसरी आप हिंदुस्तानी औरतों की तरह अपने शौहर को दिलोजान से मुहब्बत करती थी। पढ़ी-लिखी तो कुछ यूँ ही-सी थी, मगर पंडित जी के साथ रहते-रहते देशी एवं सांस्कृतिक समस्याओं से कुछ परिचित हो गई थी, लेकिन इसे चाहे इंसानी कमज़ोरी कहो, चाहे स्वभावगत अनुभव कि उससे किसी की बात बरदाश्त न हो सकती थी। वह जबान की तेज न थी, न बात-बात में उलझती थी, मगर कोई चुभती हुई बात, कोई दिल जलाने वाला ताना उसके दिल पर नासूर का-सा जख्म पैदा कर देता था। सुनने को तो वह सुन लेती और जवाब देना तो उसने सीखा ही न था, मगर अंदर-ही-अंदर घुलने की आदी थी। पंडित जी उसके इस स्वभाव से वाकिफ़ थे और इसीलिए वह कभी कोई ऐसी बात ज़बान से न निकालते, जिससे उसे सदमा हो।

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