कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
कई साल हुए जब पंडित जी की वकालत का शुरू जमाना था और आमदोखर्च में रोजाना कशमकश रहती थी। कोलेसरी ने संक्रांत के दिन जरा दानशीलता से काम लिया और पाँच रुपए की खिचड़ी गरीबों को बाँट दी। पंडित जी दिन-भर कचहरी की खाक छानकर खाली हाथ लौटे और यह कैफ़ियत देखी तो झुँझला उठे। तेज होकर बोले- ''मैं तो एक-एक पैसे के लिए मारा-मारा फिरूँ और तुम यूँ घर को लुटाओ। अगर यही मिजाज था तो बाप से कहा होता किसी राजा-महाराजा से शादी करता।''
कोलेसरी ने चुपचाप सिर नीचा करके सुना, न जवाब दिया, न आपत्ति की, न रोई, मगर पूरे छ: महीने तक बुखार और यकृत की दुर्बलता में ग्रस्त रही। पंडित जी को ज़िंदगी-भर के लिए सबक़ मिल गया।
खैर, पंडित जी रामफल चौधरी के यहाँ से खाना खाकर लौटे और दम-के-दम में सारे शहर में यह खबर मशहूर हो गई। दूसरे दिन कोलेसरी गंगा-स्नान को गई। शायद सोमवारी अमावस थी। शहर के अन्य धनी परिवारों की औरतें भी स्नान के लिए आई हुई थीं। कोलेसरी को देखकर आपस में कानाफूसी होने लगी, इशारेबाज़ियाँ होने लगीं। एक औरत ने जो देखने से किसी ऊँचे खानदान की मालूम होती थी, अपने करीब की औरत से कहा- ''जरा इन महारानी को देखो! मर्द तो चमारों के साथ खाना खाता फिरता है और यह गंगा नहाने आई है।''
कोलेसरी ने सुन लिया। उसे सुनाने के लिए ही यह बात कही गई थी। जिस तरह कुम्हार का सूत नर्म मिट्टी में घँस जाता है, उसी तरह सख्त बात दिल में चुभ जाती है। कोलेसरी तिलमिला उठी। मालूम हुआ, किसी ने कलेजे में छुरी मार दी। नहाने की सुध न रही, उल्टे क़दम लौटी और घर चली आई। साँप का जहर रग-रग में समा गया। खाना पकाकर पंडित जी को खिलाया। वह कचहरी चले गए। आज कोई मालदार मुवक्किल जाल में फँसा था। इस खुशी में बीवी के बदले हुए तेवर उन्हें नज़र न आए। शाम को खुश-खुश लौटे तो देखा, वह मुँह ढाँपे पड़ी हुई है। माथा ठनका, बोले- ''कोला, आज नित्य-नियम के खिलाफ़ लेटी क्यों हो? तबीयत तो अच्छी है न?''
कोलेसरी उठ बैठी और बोली- ''हाँ, तबीयत अच्छी है, यूँ ही लेट गई थी।''
मगर यह जवाब पंडित जी को इत्मीनान दिलाने के लिए काफ़ी न हो सकता था। तबीयत अच्छी है तो होठों पर पान की सुर्खी क्यों नहीं, बाल क्यों बिखरे हैं, चेहरा क्यों उदास है, मेरे लिए बर्फ क्यों नहीं मँगाई गई। यह ख्यालात एकदम पंडित जी के दिल में आए। कपड़े उतारे, कुछ नाश्ता किया, इधर-उधर की बातें कीं, दो-चार लतीफ़े भी सुनाए, मगर उन मंत्रों से साँप का जहर न उतरा। कोलेसरी यूँ ही हूँ-हाँ करती रही। जहर ने उसके कान बंद कर दिए थे।
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