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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780
आईएसबीएन :9781613015179

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


शाम हो गई, पंडित जी के सैर का वक्त आया, बाइसकिल उठाई और चल खड़े हुए; मगर कोलेसरी की उदासीनता, खिन्नता का ख्याल दिल में खटकता रहा। आज माँझ गाँव के पासियों के यहाँ शादी थी। वहाँ जा पहुँचे। बारात दूर से आई हुई थी। बाराती लोग शराब के लिए जिद कर रहे थे और घरातियों की तरफ़ से सोलह आना इंकार था। बारातियों का तकाजा था कि औरतें रीति के अनुरूप दरवाजे पर नाचें, नगाड़ा बजे। घराती कहते थे, अब यह रिवाज हमारे यहाँ नहीं है। माँझ गाँव मे पंडित जी की कोशिशें सफल हो गई थीं। बाराती उनके प्रभाव-क्षेत्र से बाहर थे। दोनों तरफ़ से यही वाद-विवाद, कहा-सुनी हो रही थी कि पंडित जी जा पहुँचे और बारातियों को समझा-बुझाकर ठंडा किया। ऐसे मौकों पर वह नौ-दस बजे रात तक न लौटते थे, क्योंकि उपदेश ऐसे मौकों पर ज़यादा प्रभावोत्पादक होता है, मगर आज इस काम में उनका दिल न लगा। कोलेसरी की मुरझाई हुई सूरत आखों के सामने फिरती रही। रह-रहकर ख्याल आता, मेरी जबान से तो कोई सख्त बात नहीं निकली। मुझे तो ख्याल नहीं आता कि मैंने कुछ कहा हो, फिर क्या कारण? यह उदासी बेसबब नहीं है, कुछ बात जरूर है। इन्हीं चिंताओं से बेचैन होकर वह सात ही बजे घर लौट आए।

पंडित श्यामसरूप खा-पीकर लेटे। कोलेसरी से इस वक्त भी कुछ न खाया गया। उसका चेहरा अब भी उतरा हुआ था। आखिर पंडित जी ने पूछा- ''कोला, तुम उदास क्यों हो?''

कोलेसरी- ''उदास तो नहीं हूँ।''

श्याम सरूप- ''तुम्हारी तबीयत कैसी है?''

कोलेसरी- ''तबीयत में क्या हुआ है। देखते तो हो, भली-खासी बैठी हूँ।''

श्यामसरूप- ''मैं यह न मानूँगा। तुम्हारे उदास होने की जरूर कोई-न-कोई वजह है। क्या मुझे तुमसे यह जानने का हक नहीं है? ''

कोलेसरी- ''आप मेरे दिल और जान के मालिक हैं। आपको हक न होगा तो किसको होगा?''

श्यामस्वरूप- ''तो मुझसे यह पर्दा कैसा है? मैं तो अपने दिल की कोई. बात तुमसे नहीं छिपाता हूँ।''

कोलेसरी ने आँखें नीचे करके कहा- ''क्या मैं कुछ छिपाती हूँ?''

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