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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780
आईएसबीएन :9781613015179

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


श्यामरूप- ''बहुत अच्छी बात है, यही होगा।''

कोलेसरी- ''अब आपसे मेरी एक और विनती है। मैंने अपने दिल की कैफ़ियत आपसे साफ़-साफ़ बयान कर दी। मरदों को तानों की परवाह नहीं होती, हम औरतें कमजोर होती हैं, हमारा दिल कमजोर होता है, उसमें तेज धार वाला ताना आसानी से चुभ जाता है, मगर आप इसका बिलकुल ख्याल न करें। मुझे तानों से बचाने के लिए आप अपने ऊपर जब्र न कीजिएगा। मैं ताने सुन लूँगी, ज्यादा जी जलेगा तो बाहर आना-जाना, औरतों से मिलना-जुलना छोड़ दूँगी।''

श्यामसरूप ने कोलेसरी को गले से लगा लिया और बोले- ''कोला, मुझसे यह गवारा न होगा कि मेरी खातिर तुम ताने सहो। तुम्हारे नाजुक दिल पर ताने का जख्म न लगने दूँगा। तुम्हारे दिल में रंज का वास हुआ तो मेरी मुहब्बत कहीं रहेगी? अब खुश हो जाओ और अपना प्यारा गीत सुना दो।''

कोलेसरी खुश हो गई। उसका चेहरा रौशन हो गया। उसने पियानो उठा लिया और मीठे मद्धिम सुरों में गाने लगी- ''पिया मिलन है कठिन बावरी... ''  

एक हफ्ता गुज़र गया और पंडित जी देहातों की तरफ़ न गए। अछूत भाइयों के साथ बिरादराना रिश्ता कायम करना, उनको अपने तईं इंसान समझने के क़ाबिल बनाना, उन्हें अज्ञानता और असत्यता की गार से निकालना, यह पंडित जी ने अपनी ज़िंदगी का मिशन समझ रखा था और इस काम के रास्ते में एक दीवार बाधक पाकर कोई ताज्जुब नहीं कि वह चिंतित और दुःखित रहते थे। इंसान को ज़िंदगी का लुत्फ उसी हालत में हासिल होता है, जब तक उसे इस बात का यक़ीन रहता है कि मैं अपने कर्त्तव्य को अंजाम दे रहा हूँ। दुनिया में ऐसे भी बेशुमार ईश्वर के प्राणी हैं जो यही नहीं जानते कि उनके व्यक्तिगत और सामाजिक कर्त्तव्य क्या हैं, मगर ऐसे आदमियों को इंसान कहना भूल है। जिन लोगों को बुरे कामों की चाट पड़ जाती है, वे यह जानते हुए भी कि हम जो कुछ करते हैं, बुरा करते हैं, अपने को उस काम से बाज नहीं रख सकते और जायज़ मौका न पाकर नाजायज मौकों से फ़ायदा उठाते हैं। जुआरी को कितना ही समझाओ, कितना ही धमकाओ, मगर वह जुआ खेलने से बाज नहीं आता। शराबी को चाहे पिंजड़े में बंद कर दो, मगर वह आज़ाद होते ही सीधे शराबखाने की राह लेता है। यह बुरे कामों का नशा है। नेक कामों का नशा इससे कई गुना ज्यादा बेचैन करने वाला होता है। दिन-भर तो पंडित जी काम-धंधे में लगे रहते, मगर शाम को, जो उनके दिल-बहलाव का खास वक्त था, वह बहुत बेक़रार हो जाते थे और अपने क़ौमी फ़र्ज़ को शख्सी फ़र्ज़ पर कुर्बान करने के लिए उन्हें अपने दिल पर बड़ा जब्र करना पड़ता था। जब अपने बाग़ीचे में तनहा बैठे हुए वह अपने दिल से इस मसले पर बहस करने लगते तो कभी-कभी अपनी कमज़ोरी पर झुँझला जाते और जी में आता कि चलकर कोलेसरी से साफ़-साफ़ कह दूँ कि मैं क़ौम को जात पर कुर्बान नहीं कर सकता। मगर हाय! इन बातों का असर कोला पर क्या होगा? मेरी मुहब्बत में मतवाली, नेक, शरीफ़, ग़रीब कोला पर क्या कुछ न बीत जाएगी। नहीं, मेरी जान से प्यारी कोला, तुम-जैसी अनमोल चीज़ पाकर मेरी हिमाक़त है, अगर मैं अपने तईं बदनसीब ख्याल करूँ। तुम्हारी खुशी के लिए मैं सब-कुछ सह लूँगा। अगर तुझे आज मालूम हो जाए कि मैं इस कदर बेचैन हो रहा हूँ तो मुझे यक़ीन है कि तू आज ही मेरे लिए ताने सहने क्या चीज़ हैं, सारी दुनिया में बदनाम बनना पसंद कर लेगी। तेरे इस अनन्य प्रेम के बदले में मेरे पास क्या है? क़ौमी फ़र्ज़ बेशक इंसान के सब फर्जों में बहुत ऊँचा है। मगर कभी-कभी और खास-खास हालतों में क़ौम को खुद के लिए छोड़ना पड़ता है। राजा रामचंद्र का कौमी फ़र्ज था कि वह अवध में रहकर अपनी रिआया पर न्याय और समृद्धि की बरकतें फैलाते, मगर इस क्रौमी फ़र्ज़ को उन्होंने बाप की आजा-पालन के मुक़ाबले में कुछ न समझा, जो उनका खास निजी फ़र्ज था। राजा दशरथ का क्रौमी फ़र्ज़ था कि वह अपना राज-पाट रामचंद्र को सौंपते, क्योंकि वह जानते थे कि रामचंद्र अवधवासियों की आँखों की पुतली हैं, मगर उन्होंने इस क़ौमी फ़र्ज़ को प्रतिज्ञा-पालन पर निसार कर दिया, जो उनका खास निजी फ़र्ज़ था।

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