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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780
आईएसबीएन :9781613015179

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


लेकिन पंडित श्यामसरूप की ग़लती थी जो वह समझते थे कि कोलेसरी उनके दिल की कशमकश से वाक़िफ़ नहीं है। जिस रात को ये बातें हुईं उस दिन से आज तक एक लम्हा भी ऐसा न गुज़रा होगा, जिसमें यह ख्याल उसके दिल में चुभकियाँ न लेता रहा हो कि मैंने इन पर बड़ा जुल्म किया है। उसे उनके चेहरे पर वह प्रसन्नता की झलक न नज़र आती थी, जो संतुष्ट हृदय की बरकत है। खाने-पीने में पहली-सी रुचि न थी। बात से अपनी दिली कैफ़ियत के छिपाने की कोशिश प्रकट होती थी। कोलेसरी को यह सब कैफ़ियत आईने की तरह दिखाई देती थी। वह बार-बार अपने को कोसती थी- मैं कैसी खुदगर्ज़ हूँ! कैसी कमीनी, कैसी ओछी, एक बदज़बान, क्षुद्र प्रकृति औरत के ताने से पराजित होकर मैंने उन पर इतना बड़ा जुल्म किया है! यह मेरे लिए अपने ऊपर इतना जब्र करते हैं और मैं एक ताने का सदमा न सह सकी। यह सोच-सोचकर वह चाहती कि मै उन्हें इस कैद से आज़ाद कर दूँ। मगर पंडित जी उसे इन बातों का मौक़ा ही नहीं देते।

एक हफ्ते तक पंडित श्यामसरूप के अछूत भाइयों ने सब्र किया। मुमकिन है, तबीयत न अच्छी हो, या किसी मुकदमे की पैरवी में व्यस्त हों, या कहीं सैर करने चले गए हों। इन ख्यालात से उन्होंने अपने को तस्कीन दी। मगर एक हफ्ते बाद उनसे न रहा गया। भीड़ की भीड़ आदमी, वदन पर गाढ़े की मिर्जई, सिर पर सफेद पगड़ी, पाँव में चमरौधा जूता, कंधे पर लट्ठ, उनके मकान पर राज़ी-खुशी पूछने के लिए आने लगे।

पंडित जी के लिए अब बजाए इसके और कोई चारा न था कि अपनी कर्त्तव्य-भंग के लिए कोई हीला करें और वह हीला यह था कि घर में तबीयत अस्वस्थ है। शाम से सबरे तक आदमियों का तार न टूटता। एक गाँव के लोग जाते, तो दूसरे गाँव के आ पहुँचते और सबसे पंडित जी को यही बहाना करना पड़ता। उनसे और क्या कहते!

दूसरा हफ्ता गुज़रा, मगर पंडित जी के घर में अब तक तबीयत नासाज़ थी। एक रोज़ शाम के वक्त वह दरवाजे पर बैठे हुए थे कि रामदीन पासी, हन्तु चौधरी और गोबरी, बंसफोड़, हकीम नादिरअली खाँ साहब को लिए हुए आए। हकीम साहब अपने जमाने के प्रसिद्ध हकीम, दार्शनिक एवं ज्योतिषी थे। जिस तरह महामंत्र से शैतान भागता है, उसी तरह हक़ीम जी को देखते ही रोग चाहे कैसा ही पुराना और जड़-पकड़ हो, भागने का मार्ग देखता था और प्राय: मरज़ के साथ मरीज भी चल बसता था। पंडित जी हकीम साहब को देखते ही सिटपिटा गए। अब कौन-सी चाल चलूँ! भाँडा फूटा जाता है। इन कमबख्तों को यह क्या सूझी कि इन महाशय को लाकर खड़ा कर दिया और इन महापुरुष ने भी आव देखा न ताव देखा, सीधे मौत की तरह सिर पर आ खड़े हुए। मगर वक्त तंग था। ज्यादा सोच-विचार की फुर्सत न थी। उस वक्त पंडित जी के दिल में बावजूद कोलेसरी को हजार जाम से चाहने के यह ख्याल आया कि काश, जरा देर के लिए उसे कुछ हरारत हो जाती, किसी तरह बात तो बनती, मगर बुलाने से कहीं मौत आती  हकीम साहब ने फ़रमाया- ''मुझे यह सुनकर अत्यंत अफ़सोस हुआ कि जनाब की प्यारी पत्नी दो हफ्ता से बीमार है, और अफ़सोस से ज्यादा इस बात की शिकायत है कि जनाब ने मुझे जरा भी इत्तला न दी, वरना मर्ज इस क़दर तूल न खींचता। क्या शिकायत है?''

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