कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
कोलेसारी- ''सर तो फटा जाता है। फोड़ा हो रहा है।''
मिस बोगन- ''भूख नहीं लगती न?''
कोलेसरी- ''दाने की तरफ़ देखने को जी नहीं चाहता।''
मिस बोगन मरज़ की तश्खीस कर ही चुकी थीं। नुस्सा लिखा और रूखसत हो गईं। हकीम नादिर अली खाँ ने ज्यादा बैठना फ़िज़ूल समझा। नज़राना पेशगी ले चुके थे। पंडित जी बाहर आकर अपने उपकारकों से बोले- ''तुम लोगों ने नाहक़ तकलीफ़ की। उनकी तबीयत तो अब अच्छी हो चली है। खैर, मैं तुम्हारा बहुत आभारी हूँ।''
जब मेहमान रूखसत हुए, पंडित जी अंदर आकर खूब हँसे और जब हँसी खत्म हो गई तो सोचने लगे, जो कुछ न करना चाहिए वह आज सब करना पड़ा। क्या अब भी देवी न पसीजेगी, मगर कोलेसरी को हँसी नहीं आई।
पंडित श्यामसरूप खाना खाकर लेटे और सो गए, मगर कोलेसरी को नींद नहीं आई। वह करवटें बदलती रही। कभी उठ बैठती और कमरे में इधर-उधर टहलती, कभी कोई किताब खोलकर लैम्प के सामने जा बैठती, मगर तबियत किसी काम में न लगती थी। हवा से हिलते हुए दरख्त के नीचे जिस तरह से चाँद की किरणें नाचती हैं, उसी तरह उसके खयालात परेशान हो रहे थे। वह सोचती थी कि मैंने इनके ऊपर कितना जुल्म किया है। हाय! इनके दिल पर आज क्या गुज़री होगी? जिसने ज़िंदगी भर झूठी बात मुँह से न निकाली, उसे आज मेरी बदौलत झूठ को ओढ़ना-बिछौना बनाना पड़ा। अगर उन्होंने झूठ बोलना गवारा किया होता, जो आज दीदारगंज की विशाल रियासत हमारे कब्जे में होती। ऐसी सच्चाई के नाम पर मरने वाले आदमी की मैंने यह दुर्गति की है! क्या इसीलिए मैं उनकी क़िस्मतों की शरीक हूँ? मेरा काम है उनसे हमदर्दी करना, नेक कामों में उनकी मदद करना, नेक सलाह देना, तस्कीन देना। इस सब बातों के बदले में उन्हें झूठ के जाल में फँसा रही हूँ। ईश्वर मेरा गुनाह माफ़ करे!
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