कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
मेरा फ़र्ज़ था कि इस परोपकार के कार्य में उनका हाथ बँटाती। यह देहाती कैसे सच्चे, कैसे निश्छल, कैसे उपकारी या उपकारी की पूजा करने वाले हैं, कैसे दिल के उदार! ऐसे शरीफ़ आदमियों की खिदमत करने से मैंने अपने पति को रोक दिया है, सिर्फ़ इसलिए कि एक बदज़बान औरत ने मुझे ताना दिया था और इतने पर संतुष्ट न होकर अब मैं उन्हें जबरदस्ती झूठ बोलने के लिए मजबूर करती हूँ। बावजूद मेरो इन कमीनी ज्यादातियों के इस नेकी से भी ज्यादा नेक, शराफ़त से भी ज्यादा शरीफ़, मेरे रहमदिल, मेरे पवित्र आत्मा पति का दिल ज्यों का त्यों है। वह समझता हे कि मैं बेवकूफ़ हूँ जाहिल हूँ कमजोर हूँ जिद्दी हूँ और इन कमजोरियों को अपने विस्तृत प्रेम की गोद में छिपा लेता है। मैं कैसी तंगदिल हूँ! इस क़ाबिल भी नहीं कि उनका पैर धोऊँ। आज जब मिस बोगन को रुखसत करके आए तो कैसे हँस रहे थे! कैसी पाक हँसी थी! और यह सिर्फ़ मेरा दिल रखने के लिए, सिर्फ़ मेरा गम ग़लत करने के लिए। प्यारे! मैं सिर से पैर तक बुराइयों से भरी हूँ। मैं ओछी हूँ। तुम मुझे अपने प्रेम में दासी समझते रहना।
यह सोचते-सोचते एक बार उसने पंडित श्यामसरूप के चेहरे, पर देखा, सुंदर स्वप्न ने चेहरे को बहुत शगुफ्ता बना दिया था, होठों पर हल्की-हल्की मुस्कराहट झलक रही थी। इसे देखकर कोलेसरी के दिल में प्रेम की एक लहर-सी उठी। जिस तरह समंदर में ज्वार उठता है, उसी तरह कभी-कभी इंसान के दिल में भी प्रेम का ज्वार उठता है। कोलेसरी की आँखों में इस वक्त मोहब्बत का एक दरिया समाया हुआ था। वह मोहब्बत से बेताब होकर अपने पति के सीने से लिपट गई। उस सीने से जो उसकी मोहब्बत का आराम-गाह था। जिस तरह एक चोर सोए हुए गृहस्वामी के खजाने को आज़ादी से लूटता है, उसी तरह कोलेसरी अपनी नींद में मतवाले शौहर के प्रेम के खजाने को जी खोलकर लूट रही थी और जिस तरह चोर डरता है कि गृहस्वामी जाग न जाए, उसी तरह कोलेसरी को धड़का लगा हुआ था कि कहीं यह जाग न रहे हों। औरत की मोहब्बत प्रत्यक्ष आजादी से आँखें नहीं मिला सकती। शर्म और हिजाब उसे आँखें ऊपर नहीं उठाने देते। यह खौफ़ कि मेरी यह गर्मजोशी, ज़ाहिरदारी या दिखावा या कपट-व्यवहार ना ख्याल कर ली जाए, उसकी मोहब्बत के पैरों में बेड़ियाँ डाले रहता है। कोलेसरी इस वक्त इन ख्यालों से आजाद थी। जब समंदर में ज्वार आता है तो टूटे-फूटे जहाजों के टुकड़े, कूड़ा-करकट और सीप और घोंघे किनारे पर आ जाते हैं। कोलेसरी के दिल में से प्रेम के ज्वार ने वह फाँस निकाल दी, जो अब तक खटक रही थी।
दूसरे दिन जब पंडित जी (कचहरी से) शाम को लौटे, तो कोलेसरी से कहा- ''मुझे दो-तीन दिन के लिए बाहर जाने का हुक्म मिलेगा?''
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