कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
माता मानो आकाश से गिर पड़ी। उन्हें कुछ सुध न रही कि मेरे मुँह से क्या निकल रहा है, कुलांगार, भड़वा, हरामजादा, न जाने क्या-क्या कहा। यहाँ तक कि गोकुल का धैर्य चरमसीमा का उल्लंघन कर गया। उसका मुँह लाल हो गया, त्योरियाँ चढ़ गयी, बोला- अम्माँ, बस करो। अब मुझमें इससे ज्याादा सुनने की सामर्थ्य नहीं है। अगर मैंने कोई अनुचित कर्म किया होता, तो आपकी जूतियाँ खाकर भी सिर न उठाता, मगर मैंने कोई अनुचित कर्म नहीं किया। मैंने वही किया जो ऐसी दशा में मेरा कर्तव्य था और जो हर एक भले आदमी को करना चाहिए। तुम मूर्खा हो, तुम्हें नहीं मालूम कि समय की क्या प्रगति है। इसीलिये अब तक मैंने धैर्य के साथ तुम्हारी गालियाँ सुनी। तुमने, और मुझे दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि पिताजी ने भी, मानी के जीवन को नारकीय बना रखा था। तुमने उसे ऐसी-ऐसी ताड़नाएँ दी, जो कोई अपने शत्रु को भी न देगा। इसीलिये न कि वह तुम्हारी आश्रित थी? इसीलिये न कि वह अनाथिनी थी? अब वह तुम्हारी गालियाँ खाने न आवेगी। जिस दिन तुम्हारे घर विवाह का उत्सव हो रहा था, तुम्हारे ही एक कठोर वाक्य से आहत होकर वह आत्महत्या करने जा रही थी। इंद्रनाथ उस समय ऊपर न पहुँच जाते तो आज हम, तुम, सारा घर हवालात में बैठा होता।
माता ने आँखें मटकाकर कहा- आहा! कितने सपूत बेटे हो तुम, कि सारे घर को संकट से बचा लिया। क्यों न हो! अभी बहन की बारी है। कुछ दिन में उसे ले जाकर किसी के गले में बांध आना। फिर तुम्हारी चाँदी हो जायगी। यह रोजगार सबसे अच्छा है। पढ़ लिखकर क्या करोगे?
गोकुल मर्म-वेदना से तिलमिला उठा। व्यथित कंठ से बोला- ईश्वर न करे कि कोई बालक तुम जैसी माता के गर्भ से जन्म ले। तुम्हारा मुँह देखना भी पाप है।
यह कहता हुआ वह घर से निकल पड़ा और उन्मत्तों की तरह एक तरफ चल खड़ा हुआ। जोर के झोंके चल रहे थे, पर उसे ऐसा मालूम हो रहा था कि साँस लेने के लिये हवा नहीं है।
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