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प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9792
आईएसबीएन :9781613015292

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग


यह खयाल उसके दिल पर इस बुरी तरह बैठा कि एक रोज वह कलकत्ता के लिए रवाना हो गया। सुबह का वक्त था। वह कलकत्ते पहुँचा और अपने उसी पुराने घर को चला। सारा शहर कुछ हो गया था। बहुत तलाश के बाद उसे अपना पुराना घर नजर आया। उसके दिल में जोर से धड़कन होने लगी और भावनाओं में हलचल पैदा हो गयी। उसने एक पड़ोसी से पूछा- इस मकान में कौन रहता है?

बूढ़ा बंगाली था, बोला- हाम यह नहीं कह सकता, कौन है कौन नहीं है। इतना बड़ा मुलुक में कौन किसको जानता है? हाँ, एक लड़की और उसका बूढ़ा माँ, दो औरत रहता है। विधवा है, कपड़े की सिलाई करता है। जब से उसका आदमी मर गया, तब से यही काम करके अपना पेट पालता है।

इतने में दरवाजा खुला और एक तेरह-चौदह साल की सुन्दर लड़की किताव लिये हुए बाहर निकली। नानकचन्द पहचान गया कि यह कमला है। उसकी आँखों में आँसू उमड़ आए, बेअख्तियार जी चाहा कि उस लड़की को छाती से लगा ले। कुबेर की दौलत मिल गयी। आवाज को सम्हालकर बोला- बेटी, जाकर अपनी अम्माँ से कह दो कि बनारस से एक आदमी आया है। लड़की अन्दर चली गयी और थोड़ी देर में ललिता दरवाजे पर आयी। उसके चेहरे पर घूँघट था और गो सौन्दर्य की ताजगी न थी मगर आकर्षण अब भी था। नानकचन्द ने उसे देखा और एक ठंडी सॉँस ली। पतिव्रत और धैर्य और निराशा की सजीव मूर्ति सामने खड़ी थी। उसने बहुत जोर लगाया, मगर जब्त न हो सका, बरबस रोने लगा। ललिता ने घूंघट की आड़ से उसे देखा और आश्चर्य के सागर में डूब गयी। वह चित्र जो हृदय-पट पर अंकित था, और जो जीवन के अल्पकालिक आनन्दों की याद दिलाता रहता था, जो सपनों में सामने आ-आकर कभी खुशी के गीत सुनाता था और कभी रंज के तीर चुभाता था, इस वक्त सजीव, सचल सामने खड़ा था। ललिता पर ऐसी बेहोशी छा गयी, कुछ वही हालत जो आदमी को सपने में होती है। वह व्यग्र होकर नानकचन्द की तरफ बढ़ी और रोती हुई बोली- मुझे भी अपने साथ ले चलो। मुझे अकेले किस पर छोड़ दिया है; मुझसे अब यहाँ नहीं रहा जाता।

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