लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9795
आईएसबीएन :9781613015322

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

428 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग


राजा ने तुर्सी से कहा- वह बड़ा घमण्डी और बिनकहा हो गया है, मैं उसका मुंह नहीं देखना चाहता।

रानी कुचले हुए साँप की तरह ऐंठकर बोली- राजा, तुम्हारी जबान से यह बातें निकल रही हैं! हाय मेरा लाल, मेरी आँखों की पुलती, मेरे जिगर का टुकड़ा, मेरा सब कुछ यों अलोप हो जाए और इस बेरहम का दिल जरा भी न पसीजे! मेरे घर में आग लग जाए और यहाँ इन्द्र का अखाड़ा सजा रहे! मैं खून के आँसू रोऊँ और यहाँ खुशी के राग अलापे जाएं!

राजा के नथने फड़कने लगे, कड़ककर बोले- रानी भानकुंवर अब जबान बन्द करो। मैं इससे जयादा नहीं सुन सकता। बेहतर होगा कि तुम महल में चली जाओ।

रानी ने बिफरी हुई शेरनी की तरह गर्दन उठाकर कहा- हाँ, मैं खुद जाती हूँ। मैं हुजूर के ऐश में विघ्न नहीं डालना चाहती, मगर आपको इसका भुगतान करना पड़ेगा। अचलगढ़ में या तो भानकुँवर रहेगी या आपकी जहरीली, विषैली परियाँ!

राजा पर इस धमकी का कोई असर न हुआ। गैंडे की ढाल पर कच्चे लोहे का असर क्या हो सकता है! जी में आया कि साफ-साफ कह दें, भानकुंवर चाहे रहे या न रहे यह परियां जरूर रहेंगी लेकिन आपने को रोककर बोले- तुमको अख्तियार है, जो ठीक समझो वह करो।

रानी कुछ कदम चलकर फिर लौटीं और बोली- त्रिया-हठ रहेगी या राजहठ?

राजा ने निष्कम स्वर में उत्तर दिया- इस वक्त तो राजहठ ही रहेगी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book