कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34 प्रेमचन्द की कहानियाँ 34प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग
कुलीना ने पूछा- ''लाला! आज दंगल का क्या रंग रहा?''
हरदौल सिर झुकाकर जवाब दिया- ''आज भी वही कल का-सा हाल रहा।''
कुलीना- ''क्या भालदेव मारा गया?''
हरदौल- ''नहीं, जान से तो नहीं, पर हार हो गई।''
कुलीना- ''तो अब क्या करना होगा?''
हरदौल- ''मैं स्वयं इसी सोच में हूँ। आज तक ओरछे को कभी नीचा न देखना पड़ा था। हमारे पास धन न था, पर अपनी वीरता के सामने हम राज और धन को कोई चीज़ नहीं समझते थे। अब हम किस मुँह से अपनी वीरता का घमंड करेंगे-ओरछे की और बुंदेलों की लाज अब जाती है।''
कुलीना- ''क्या अब कोई आस नहीं है?''
हरदौल- ''हमारे पहलवानों में वैसा कोई नहीं है जो उससे बाजी ले जाए। भालदेव की हार ने बुंदेलों की हिम्मत तोड़ दी है, और आज शहर में शोक छाया हुआ है। सैकड़ों घरों में आग नहीं जली। चिराग़ रौशन नहीं हुआ। हमारे देश और जाति की वह चीज़ अब अंतिम स्वाँस ले रही है, जिससे हमारा मान था। भालदेव हमारा उस्ताद था। उसके हार चुकने के बाद मेरा मैदान में आना धृष्टता है, पर बुंदेलों की साख जाती है तो मेरा सिर भी उसके साथ जाएगा। क़ादिरखाँ बेशक अपने हुनर में एक ही है, पर हमारा भालदेव कभी उससे कम नहीं। उसकी तलवार यदि भालदेव के हाथ में होती तो मैदान जरूर उसके हाथ रहता। ओरछे में केवल एक तलवार है, जो क़ादिरखाँ की तलवार का मुँह मोड़ सकती है। वह भैया की तलवार है। अगर तुम ओरछे की नाक रखना चाहती हो तो उसे मुझे दे दो। यह हमारी अंतिम चेष्टा होगी; यदि अबके भी हार हुई तो ओरछे का नाम सदैव के लिए डूब जाएगा।''
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