कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34 प्रेमचन्द की कहानियाँ 34प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग
कुलीना सोचने लगी। तलवार इनको दूँ या न दूँ। राजा रोक गए हैं। उनकी आज्ञा थी कि किसी दूसरे की परछाहीं भी उस पर न पड़ने पावे। क्या ऐसी दशा में उनकी आज्ञा का उल्लंघन करूँ तो वे नाराज़ होंगे? कभी नहीं। जब वे सुनेंगे कि मैंने कैसे कठिन समय में तलवार निकाली है, तो उन्हें सच्ची प्रसन्नता होगी। बुंदेलों की आन किसको इतनी प्यारी है? उनसे ज्यादा ओरछे की भलाई चाहने वाला कौन होगा? इस समय उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना ही आज्ञा मानना है। यह सोचकर कुलीना ने तलवार हरदौल को दे दी।
सबेरा होते ही यह खबर फैल गई कि राजा हरदौल क़ादिरखाँ से लड़ने के लिए जा रहे हैं। इतना सुनते ही लोगों में सनसनी-सी फैल गई और वे चौंक उठे। पागलों की तरह लोग अखाड़े की और दौड़े। हर एक आदमी कहता था कि जब तक हम जीते हैं, हम महाराज को लड़ने नहीं देंगे पर जब लोग अखाड़े के पास पहुँचे तो देखा कि अखाड़े में बिजलियाँ-सी चमक रही हैं। बुंदेलों के दिलों पर उस समय जैसी बीत रही थी, उसका अनुमान करना कठिन है। उस समय उस लंबे-चौड़े मैदान में जहाँ तक निगाह जाती थी, आदमी-ही-आदमी नज़र आते थे पर चारों तरफ़ सन्नाटा था। हर एक आँख अखाड़े की तरफ़ लगी हुई थी और हर एक का दिल हरदौल की मंगलकामना के लिए ईश्वर का प्रार्थी था। क़ादिरखाँ का एक-एक वार हज़ारों दिलों के टुकड़े कर देता था और हरदौल की एक-एक काट से मनों में आनंद की तहरें उठती थीं। अखाड़े में दो पहलवानों का सामना था और अखाड़े के बाहर 'आशा और निराशा' का। आखिर घड़ियाल ने पहला पहर बजाया और हरदौल की तलवार बिजली बनकर क़ादिर के सिर पर गिरी। यह देखते ही बुंदेले मारे आनंद के उन्मत्त हो गए। किसी को किसी की सुधि न रही। कोई किसी से गले मिलता, कोई उछलता और कोई छलाँगें भरता था। हजारों आदमियों पर वीरता का नशा छा गया। तलवारें स्वयं म्यान से निकल पड़ीं, भाले चमकने लगे। जीत की खुशी में सैकड़ों जाने भेंट हो गईं पर जब हरदौल अखाड़े से बाहर आए और उन्होंने बुंदेलों की ओर तेज निगाहों से देखा तो आन-की-आन में लोग सम्हल गए। तलवार म्यानों में जा छिपीं। ख्याल आ गया- यह खुशी क्यों, वह उमंग क्यों, और यह पागलपन किस लिए? बुंदेलों के लिए यह कोई नई बात नहीं हुई। इस विचार ने लोगों का दिल ठंडा कर दिया। हरदौल की इस वीरता ने उसे हर एक बुंदेले के दिल में मान-प्रतिष्ठा की उस ऊँची जगह पर जा विठाया, जहाँ न्याय और उदारता भी उसे न पहुँचा सकती थी। वह पहले ही से सर्वप्रिय था और अब वह अपनी जाति का वीरवर और बुंटेला-दिलावरी का सिरमौर वन गया।
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