कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 36 प्रेमचन्द की कहानियाँ 36प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग
शिवविलास- ''अपने नाम के पीछे एम.ए., एल.एल.बी. का पुछल्ला लगाए बिना न मानोगे।''
संत- (चिढ़कर) ''कोई और भी मानता है या मैं ही मानूँ। सभी तो इन उपाधियों पर जान देते हैं, और क्यों न दें, समाज में इनका सम्मान कितना है। अभी तक शायद ही कोई ऐसा मनुष्य हो, जिसने अपनी डिग्रियाँ छोड़ दी हों। वह लोग भी जो असहयोग के नेता और स्तंभ बनते हैं अपने नामों के साथ पुछल्ले लगाने में कोई आपत्ति नहीं समझते, नहीं, बल्कि उस पर गर्व करते हैं। आपके राष्ट्रीय कॉलेजों में भी इन्हीं डिग्रियों की पूछ होती है। चरित्र को कोई पूछता ही नहीं। जब हम इसी कसौटी पर परखे जाते हैं तो मेरे उपाधि-प्रेम पर किसी को हँसने की जगह नहीं है।''
शिवविलास- ''तुम तो नाराज़ हो गए। मेरा आक्षेप तुम पर नहीं, बल्कि सभी उपाधि प्रेमियों पर था। यदि असहयोगी लोग अभी तक उपाधियों पर जान दे रहे हैं तो इससे इस प्रथा का दूषण कम नहीं होता। यह उनके लिए और भी निंद्य है, लेकिन हाँ, अब हवा बदल रही है, संभव है थोड़े दिनों में यह प्रथा मिट जाए। तुम एक वर्ष में मेरी सहायता करने का वचन देते हो। इतने दिन तक एक समाचार-पत्र का बोझ मैं अकेले कैसे सँभाल सकूँगा।''
संत- ''पहले यह तो बतलाइए आपकी नीति क्या होगी? अगर आपने भी वही नीति रखी जो दूसरे पत्रों की है तो अलग पत्र निकालने की क्या जरूरत है?''
श्रीविलास- ''मुझसे तो आप लोग पूछते ही नहीं। मैं भी मदरसा छोड़ रहा हूँ।''
शिव- ''तुम मेरे कार्यालय में लेखक बन जाना।''
संत- ''तुम क्यों बीच में बोल उठते हो? हाँ भाई साहब, आपने कौन-सी नीति ग्रहण करने का निश्चय किया है?''
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