कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 36 प्रेमचन्द की कहानियाँ 36प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग
शिव- ''मेरी नीति होगी सरल, किंतु विवेकशील जीवन का प्रचार। मैं विलासिता और दिखावे की जड़ खोदने की चेष्टा करूँगा। हम आँखें बंद किए हुए पच्छिमी जीवन की नक़ल कर रहे हैं। धन को हमने सर्वोच्च स्थान दे रखा है। हमारी कुलीनता, सम्मान, गौरव, प्रतिभा, सब कुछ धन के अधीन हो गई है। हम अपने पुरुखाओं के संतोष और संयम-त्याग को बिलकुल भूल गए हैं। जहाँ देखिए वहीं धनपतियों की, साहूकारों की, जमींदारों की पताका लहरा रही है। मैं दीनरक्षा को अपना आदर्श बनाऊँगा। यद्यपि ये विचार नए नहीं हैं, कभी-कभी पत्रों में इन पर टिप्पणियाँ की जाती हैं, किंतु अभी तक इनका महत्त्व दार्शनिक सिद्धांतों से अधिक नहीं है और वह भी अप के बड़े-बड़े विद्वानों की नकल है। यह टिप्पणियाँ केवल मनोरंजन के लिए की जाती हैं, इसी कारण इनका किसी पर असर नहीं पडता। मेरा जीवन इस सिद्धांत को चरितार्थ करेगा। यह विचार बरसों से मेरे मन में तरंगें मार रहे हैं। अब यह तरंगें बाहर निकलकर धनलोलुपता और इंद्रियलिप्सा की दीवारों से टकराएँगी। मैं तुमसे सच कहता हूँ धन का यह मान देखकर कभी-कभी मेरा रक्त खौलने लगता है। विद्वानों और गुणियों की इज्जत ही उठ गई। एक समय वह था कि बड़े-बड़े सम्राट ज्ञानियों के सामने सिर झुकाते थे। आजकल तो धार्मिक संस्थाएँ भी धनिकों का मुँह ताकती रहती हैं। हमारे साधु-महात्मा, उपदेशक, देहातों में भूलकर भी नहीं जाते। वह ऊँचे-ऊँचे सुसज्जित पंडालों में व्याख्यान देते हैं, मोटरों पर हवा खाते और सुंदर प्रसादों में निवास करते हैं। शोक तो यह है कि विद्वज्जन भी इसी धनदेव के उपासक हैं, जिन्हें संतोष और सरलता का नमूना होना चाहिए था, वे भी अपनी विद्या और योग्यता को मोतियों के तौल बेचते हैं। धन-लालसा ने उन्हें भी ग्रस लिया, त्याग का तो लोप ही हो गया।''
संत- ''आपके विचार तो साम्यवादियों के से हैं। क्या आपको मालूम नहीं कि वह लोग विद्वानों को अपने समाज में क्या स्थान देते हैं?''
शिव- ''खूब मालूम है, ऐसे विद्वान इसी बर्ताव के योग्य हैं। जिस प्रकार भूमिवाले अपनी भूमि को, व्यापारवाले अपने व्यापार को भोग-विलास का साधन बनाते हैं उसी प्रकार विद्वान लोग भी अपनी विद्या और सिद्धि को इंद्रियों के सुख पर बलिदान करते हैं। ऐसी दशा में उन्हें यदि धनिकों और अतियों के साथ गिना जाता है तो कोई अन्याय नहीं है।''
इतने में एक सुंदरी बालिका कमरे में आई। यह बाबू हरिविलास की छोटी लड़की अंजनी थी। कन्या पाठशाला में पढ़ती थी। श्रीविलास ने कहा- ''आओ अंजनी आओ, यह दोनों महाशय तो बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं, हम तुम भी अपने जीवन के छोटे-छोटे मंसूबे बाँधें। मैंने तो खेती करने का विचार किया है।''
अंजनी- ''मैं तुम्हारी गाय दुहूँगी, दही जमाऊँगी, घी निकालूँगी।''
श्री - ''और चर्खा?''
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