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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797
आईएसबीएन :9781613015346

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


अंजनी- ''भैया मुझसे चर्खा न चलाया जाएगा, यह बुढ़ियों का काम है।''

श्री- ''वाह, इस चर्खे पर तो सब कुछ निर्भर है। हमारे देश में 7० करोड़ का कपड़ा हर साल विलायत से आता है। शायद 1० करोड़ का कपड़ा इटली, जापान, फ्रांस, आदि देशों से आता होगा। हम तुम, और भाग्यवती आध पाव सूत रोज़ कातें और साल में 3०० दिन काम करें तो तीन मन सूत कात लेंगे। तीन मन सूत में कम-से-कम एक सौ जोड़े धोतियाँ तैयार होंगी। अगर एक जोड़े का दाम चार रुपये ही रखें तो हम साल-भर में चार सौ रुपये की धोतियाँ बना लेंगे। धुनाई मैं आप कर लूँगा। यह तीन प्राणियों के साधारण परिश्रम का फल है, रादि 3० करोड़ की आबादी में केवल पचास लाख मनुष्य यह काम करने लगें तो हमारे देश को 80 करोड़ वार्षिक बचत हो जाएगी। अगर एक करोड़ मनुष्य इस धन्धे में लग जाएँ तो हमें कपड़े के लिए अन्य देशों को एक पैसा भी न देना पड़े।''

शिव- (हिसाब लगाकर) ''यार तुमने खूब हिसाब लगाया। इतने महत्त्वपूर्ण काम के लिए कुल 5० लाख मनुष्यों की आवश्यकता है? मुझे अब तक यह अनुमान ही न था कि इतने कम आदमियों की मेहनत हमारी आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है। चलो मैं भी तुम्हारी मदद करूँगा। अपने पत्र में घरेलू उद्योग-धन्धों का खूब प्रचार करूँगा।''

संत- ''आपके और मेरे आदर्शों में बड़ा अंतर है। मेरा विचार है कि बुद्धि और मस्तिष्क से काम करनेवालों को श्रमजीवियों पर सदैव प्रधानता रहेगी। उनके काम का महत्त्व कहीं अधिक है। यदि आप उनके लिए अवस्थानुकूल जीवनवृत्ति की व्यवस्था नहीं करेंगे तो वह एकाग्रचित्त होकर विद्या की उन्नति न कर सकेंगे और उसका परिणाम बुरा होगा। संतोष और त्याग राष्ट्रीय अवनति के लक्षण हैं। उन्नत जातियाँ अधिकार, राज्य-विस्तार, संपत्ति और गौरव पर जान देती हैं, यहाँ तक कि बोलशेविस्ट भी दिनोंदिन अपने राज्य की सीमाएँ बढ़ाते चले जाते हैं।''

शिव- ''इस विषय पर फिर बातें होंगी, चलो इस समय अच्छा मौक़ा है, दादा घर में अम्मा के पास बैठे हुए हैं, जरा उन्हें तसकीन दे आएँ।''

तीनों युवक जाकर हरिविलास के सामने खड़े हो गए। उन्होंने चिंतित भाव से शिवविलास को देखकर पूछा- ''तुम्हारा कॉलेज कब खुलेगा?''

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