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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797
आईएसबीएन :9781613015346

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


शिव- ''कॉलेज तो 15 जनवरी को खुलेगा, लेकिन मैं वहाँ जाना नहीं चाहता। नाम कटवा लिया।''

हरिविलास- ''यह तुमने क्या नादानी की। तुम्हारी समझ में क्या मैं चार महीने तक भी तुम्हारी सहायता न कर सकता। इसी एप्रिल में तो तुम्हारी परीक्षा होनेवाली थी। कम-से-कम मुझसे पूछ तो लेते, या मेरा इतना अधिकार भी नहीं है।''

शिव- ''इतनी भूल तो अवश्य हुई, लेकिन जब आपने न्याय के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया तो मेरे लिए यह लज्जा की बात थी कि आपके आदर्श के विरुद्ध व्यवहार करता। मैंने डॉक्टरी पढ़ने का इरादा छोड़ दिया। कम-से-कम इसे जीविका का आधार नहीं बनाना चाहता। मेरा विचार एक समाचार-पत्र निकालने का है।''

हरिविलास- ''जेलखाने जाने के लिए भी तैयार हो?''

शिवविलास- ''यदि न्याय और सत्य की रक्षा के लिए जेल जाना पड़े तो मैं इसे अहोभाग्य समझूँगा।''

हरिविलास- ''मालूम होता है तुम्हें हवा अच्छी तरह लग गई। रुपयों का क्या प्रबंध किया है?''

शिवविलास- ''इसकी आप चिंता न कीजिए। मेरे कई मित्रों ने सहायता करने का वचन दिया है।''

हरिविलास- ''अच्छी बात है, इसका भी मज़ा चख लो। अभी राजनीति के चक्कर में आए नहीं हो, समझते हो जातिसेवा जितनी स्तुत्य है उतनी ही सुगम भी है, पर तुम्हें शीघ्र ही अनुभव हो जाएगा कि यहाँ पग-पग पर काँटे हैं। मैं ऐसा स्वार्थांध और भावशून्य नहीं हूँ कि तुम्हारे देशानुसार को दबाना चाहूँ किंतु इतना जता देना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ कि खूब सोच-समझकर इस क्षेत्र में आना। अगर कुछ दूर चलकर हिम्मत छोड़ दी तो फिर कहीं मुँह दिखाने लायक़ न रहोगे। मैं तुमसे मदद नहीं चाहता और न मेरे लिए यह कम गौरव की बात है कि मेरा पुत्र देशसेवा में तल्लीन हो जाए, अपने को जाति पर न्यौछावर कर दे, केवल तुम्हें कठिनाइयों से सचेत कर देना चाहता हूँ। तुम कब जाओगे संतू?''

संत-''मैं भी पंद्रह जनवरी को जाऊँगा।''

हरिविलास- ''तुम्हें कितने रुपयों की जरूरत होगी। इसी महीने में तो तुम्हें इतहान की फीस भी देनी होगी।''

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