कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 37 प्रेमचन्द की कहानियाँ 37प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग
कीर्तन के पश्चात् ज्ञान सिंह इंदिरा के पास जाता है और कहता है, ‘इंदिरा, क्या अभी तुम्हारी परीक्षा पूरी नहीं हुई?’
इंदिरा कहती है, ‘अभी नहीं, मुझे इस प्रतिष्ठा के योग्य बनने दीजिए।’
राजकुमार, ‘इस उत्सव की स्मृति में प्यार का एक उपहार प्रस्तुत करता हूँ।’
इंदिरा, ‘अभी मेरे लिए प्यार का कोई उपहार वर्जित है।’
राजकुमार, ‘तुम बड़ी निर्दयी हो इंदिरा!’
इंदिरा, ‘और ऐसी निर्दयी औरत को आप अपनी रानी बनाना चाहते हैं? रानी को दयालु होना चाहिए।’
राजकुमार, ‘सारी दुनिया के लिए तो तुम दया की देवी हो लेकिन मेरे लिए पत्थर की मूरत।’
ज्ञान सिंह अब इंदिरा के हाथों में है। वह आत्मा है तो ज्ञान सिंह शरीर। प्रजा के अधिकारों को इंदिरा एक क्षण के लिए भी विस्मृत नहीं करती। आए दिन नये-नये फरमान जारी होते हैं जिनके द्वारा प्रजा की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए कोई न कोई नया अधिकार प्रदान किया जाता है। शाही खर्चे कम किए जाते हैं। शाही महल में भी वह ठाट-बाट नहीं है। सेवकों की एक पूरी पलटन थी, उन्हें हटा दिया गया है। रूपवान दासियों की भी एक फौज थी, उन्हें भी हटा दिया जाता है। प्रजा की आवश्यकताओं के लिए महलों के कई भाग पृथक् कर दिए जाते हैं। एक महल में पुस्तकालय खुल जाता है, दूसरे में औषधालय। एक पूरा भवन किसानों और मजदूरों के नाम कर दिया जाता है, जहाँ उनकी पंचायतें होती हैं और विभिन्न प्रकार के कृषि उपकरणों की प्रदर्शनी लगती है। सेना के एक बड़े भाग को भंग कर दिया जाता है। उसके स्थान पर प्रजा में से युवा चुन लिए जाते हैं और तत्काल राष्ट्रीय सेना सुसज्जित कर दी जाती है। युवाओं के लिए व्यायामशालाएँ निर्मित की जाती हैं। ज्ञान सिंह वैभव के वातावरण में पला हुआ राजकुमार है। उसका आदेश प्रजा के लिए कानून हो सकता था, अब वह पग-पग पर स्वयं ही प्रतिबन्ध आरोपित करता है। यह सब इंदिरा की प्रेरणा का प्रभाव है। इंदिरा जो राजाज्ञा लिखती है, वह उस पर आँखें मूँदकर हस्ताक्षर कर देता है।
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