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प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9798
आईएसबीएन :9781613015353

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग


इधर अमीरों और दरबारियों में बड़ी चिन्ता व्याप्त हो जाती है। उनके विचार में रियासत नष्ट हुई जाती है। ज्ञान सिंह की यही दशा रही तो थोड़े ही दिनों में अमीरों का खात्मा हो जाएगा। आजादी की इस बाढ़ को रोकने के षड्यन्त्र किए जाते हैं। पद्मा इस षड्यंत्र की प्राणवायु है। ये लोग कटी-छँटी सेना के सिपाहियों और बर्खास्त किए गए सरकारी सेवकों में अफवाहें फैलाते हैं। अमीरों में भी विद्रोह उत्पन्न करते हैं। ज्ञान सिंह को तलवार की नोक पर अधीन करके किसी दूसरे राजा को गद्दी पर बैठाना चाहते हैं। इस षड्यन्त्र से पद्मा का उद्देश्य मात्र यही है कि इंदिरा अपमानित व बदनाम हो। वह उसको बदनाम करती है और इंदिरा को ही इन समस्त परिवर्तनों का एकमात्र कारण ठहराती है। इसलिए विद्रोहियों का यह समूह उसके प्राणों का प्यासा हो जाता है। सशस्त्र विद्रोह की तैयारियाँ की जा रही हैं।

ज्ञान सिंह और इंदिरा शाही महल के एक छोटे से कमरे में बैठे शतरंज खेल रहे हैं। कमरे में कोई सजावट या बनावट नहीं है। आज इंदिरा ने यह शर्त लगाई है कि यदि वह जीत जाएगी तो जो चाहेगी राजा से माँग लेगी, उसके देने में राजा को कोई आपत्ति नहीं होगी; और राजा को भी यही अधिकार होगा। अपने-अपने मन में दोनों प्रसन्न हैं। ज्ञान सिंह की प्रसन्नता की सीमा नहीं है, आज वह अपनी सफलता के विश्वास से फूला नहीं समा रहा है। दोनों खूब मन लगाकर खेल रहे हैं। पहले राजा साहब बढ़त लेते हैं और इंदिरा के कई मोहरे पीट लेते हैं। उनकी प्रसन्नता क्षण-प्रतिक्षण बढ़ती जाती है। अचानक बाजी पलट जाती है, राजा के बादशाह पर शह पड़ जाती है और उसका वजीर पिट जाता है। फिर तो एक-एक करके उसके सभी मोहरे गायब हो जाते हैं और वह हार जाता है। उसके मुँह पर निराशा छा जाती है। उसी समय इंदिरा एक राजाज्ञा निकालती है और राजा से उस पर हस्ताक्षर करने का निवेदन करती है। झुकी हुई दृष्टि से राजा उस राजाज्ञा को देखता है। अनाज का आयात कर माफ कर दिया गया है जिससे शाही राजस्व में एक महत्त्वपूर्ण राशि की कमी हो जाती है। रियासत में बहुत कम अनाज उत्पन्न होता है, अधिकांश अनाज दूसरे देशों से आता है। इस पर आयात कर के कारण अनाज महँगा हो जाने से प्रजा को कष्ट होता था। इंदिरा गरीबों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने की चिन्ता में थी और अवसर पाकर उसने आज यह राजाज्ञा प्रस्तुत की। ज्ञान सिंह को संकोच तो होता है लेकिन वह जबान हार चुका है। राजाज्ञा पर हस्ताक्षर कर देता है।

इसी समय बाहर शोर मच जाता है। एक संतरी दौड़ा हुआ आता है और सूचना देता है कि विद्रोहियों ने शाही महल को घेर लिया है और अन्दर घुसने की चेष्टा कर रहे हैं।

ज्ञान सिंह का मुँह क्रोध से लाल हो जाता है। वह तत्काल हथियारों से सुसज्जित होकर इंदिरा से विदा लेता है और परकोटे पर चढ़कर विद्रोहियों को ऊँची आवाज में सम्बोधित करके विद्रोह का कारण पूछता है।

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