कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 37 प्रेमचन्द की कहानियाँ 37प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग
यह एक छोटा-सा तेगा था, मगर बहुत आबदार। उसकी मूठ में अनमोल जवाहरात जड़े हुए थे और मूठ के ऊपर ‘विक्रमादित्य’ खुदा हुआ था। यह विक्रमादित्य का तेगा था, उस विक्रमादित्य का जो भारत का सूर्य बनकर चमका, जिसके गुन अब तक घर-घर गाये जाते हैं। इस तेगे ने भारत के अमर कालिदास की सोहबतें देखी हैं। जिस वक्त विक्रमादित्य रातों को वेश बदलकर दुख-दर्द की कहानी अपने कानों सुनने और अत्याचारों की लीला अपनी संवेदनशील आंखों से देखने के लिए निकलते थे, यही आबदार तेगा उनके बगल की शोभा हुआ करता था। जिस दया और न्याय ने विक्रमादित्य का नाम अब तक जिन्दा रक्खा है, उसमें यह तेगा भी उनका हमदर्द और शरीक था। यह उनके साथ उस राजसिंहासन पर शोभायमान होता था जिस पर राजा भोज को भी बैठना नसीब न हुआ।
इस तेगे में गजब की चमक थी। बहुत जमाने तक जमीन के नीचे दफन रहने पर भी उस पर जंग का नाम न था। अंधेरे घरों में उससे उजाला हो जाता था। रात भर चमकते हुए तारे की तरह जगमगाता रहता। जिस तरह चांद बादलों के परदे में छिप जाता है। मगर उसकी मद्धिम रोशनी छन-छनकर आती है, उसी तरह गिलाफ के अंदर से उस तेगे की किरनें नजरों के तीर मारा करती थीं। मगर जब कोई व्यक्ति उसे हाथ में ले लेता तो उसकी चमक गायब हो जाती थी। उसका यह गुण देखकर लोग दंग रह जाते थे।
हिन्दुस्तान में इन दिनों शेरे पंजाब की ललकार गूंज रही थी। रणजीतसिंह दानशीलता और वीरता, दया और न्याय में अपने समय के विक्रमादित्य थे। उस घमंडी काबुल को, जिसने सदियों तक हिन्दोस्तान को सर नहीं उठाने दिया था, खाक में मिलाकर लाहौर जाते थे। महानगर का खुला हुआ दिलकश मैदान और पेड़ों का आकर्षक जमघट देखा तो वहीं पड़ाव डाल दिया। बाजार लग गए, खेमे और शामियाने गाड़ दिये गये। जब रात हुई तो पच्चीस हजार चूल्हों का काला धुआं सारे मैदान और बगीचे पर छा गया। और इस धुएं के आसमान में चूल्हों की आग, कंदीलें और मशालें ऐसी मालूम होती थीं गोया अंधेरी रात में आसमान पर तारे निकल आये हैं।
शाही आरामगाह से गाने-बजाने की पुरशोर और पुरजोश अवाजें आ रही थीं। सिख सरदारों ने सरहदी जगहों पर सैकड़ों अफगानी औरतें गिरफ्तार कर ली थीं, जैसा उन दिनों लड़ाइयों में आम तौर पर हुआ करता था। वही औरतें इस वक्त सायेदार दरख्तों के नीचे कुदरती फर्श से सजी हुई महफिल में अपनी बेसुरी तानें अलाप रही थीं और महफिल के लोग जिन्हें गाने का आनन्द उठाने की इतनी लालसा न थी, जितनी हंसने और खुश होने की, खूब जोर-जोर से कहकहे लगा-लगाकर हंस रहे थे। कहीं-कहीं मनचले सिपाहियों ने स्वांग भरे थे, वह कुछ मशालें और सैंकड़ों तमाशाइयों की भीड़ साथ लिये हुए इधर-उधर धूम मचाते हुए फिरते थे। सारी फौज के दिलों में बैठकर विजय की देवी अपनी लीला दिखा रही थी।
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