कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 38 प्रेमचन्द की कहानियाँ 38प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग
चक्रधर- मैं उसी कायदे से गेंद में ठोकर मारता था, जैसे किताब में लिखा है।
नईम- तभी तो बाजी मार ले गये भाई ! और नहीं क्या हम आपसे किसी बात में कम हैं। हाँ, तुम्हारी-जैसी सूरत कहाँ से लावें।
चक्रधर- बहुत बनाओ नहीं। मैं ऐसा कहाँ का बड़ा रूपवान हूँ।
नईम- अजी यह तो नतीजे ही से जाहिर है। यहाँ साबुन और तेल लगाते-लगाते भौंरा हुआ जाता हूँ और कुछ असर नहीं होता। मगर आपका रंग बिना हर्रे-फिटकिरी के ही चोखा है।
चक्रधर- कुछ मेरे कपड़े वगैरह की निस्बत तो नहीं कहती थी?
नईम- नहीं, और तो कुछ नहीं कहा। हाँ, इतना देखा कि जब तक खड़ी रही, आपकी ही तरफ उसकी टकटकी लगी हुई थी।
पंडितजी अकड़े जाते थे। हृदय फूला जाता था। जिन्होंने उनकी वह अनुपम छवि देखी, वे बहुत दिनों तक याद रखेंगे। मगर इस अतुल आनन्द का मूल्य उन्हें बहुत देना पड़ा, क्योंकि अब कालेज का सेशन समाप्त होनेवाला था और मित्रों की पंडितजी के माथे एक बार दावत खाने की बड़ी अभिलाषा थी। प्रस्ताव होने की देर थी। तीसरे दिन उनके नाम लूसी का पत्र पहुँचा- वियोग के दुर्दिन आ रहे हैं; न-जाने आप कहाँ होंगे और मैं कहाँ हूँगी। मैं चाहती हूँ, इस अटल प्रेम की यादगार में एक दावत हो। अगर उसका व्यय आपके लिए असह्य हो, तो मैं सम्पूर्ण भार लेने को तैयार हूँ। इस दावत में मैं और मेरी सखियाँ-सहेलियाँ निमन्त्रित होंगी, कालेज के छात्र और अध्यापकगण सम्मिलित होंगे। भोजन के उपरांत हम अपने वियुक्त हृदय के भावों को प्रकट करेंगे। काश, आपका धर्म, आपकी जीवन-प्रणाली और मेरे माता-पिता की निर्दयता बाधक न होती, तो हमें संसार की कोई शक्ति जुदा नहीं कर सकती।
चक्रधर यह पत्र पाते ही बौखला उठे। मित्रों से कहा- भाई, चलते-चलते एक बार सहभोज तो हो जाय। फिर न जाने कौन कहाँ होगा। मिस लूसी को भी बुलाया जाय।
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