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प्रेमचन्द की कहानियाँ 38

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9799
आईएसबीएन :9781613015360

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग


यद्यपि पंडितजी के पास इस समय रुपये न थे, घरवाले उनकी फिजूलखर्ची की कई बार शिकायत कर चुके थे, मगर पंडितजी का आत्माभिमान यह कब मानता कि प्रीतिभोज का भार लूसी पर रखा जाय। वह तो अपने प्राण तक उस पर वार चुके थे। न-जाने क्या-क्या बहाने बनाकर ससुराल से रुपये मँगवाये और बड़े समारोह से दावत की तैयारियाँ होने लगीं। कार्ड छपवाये गये, भोजन परोसनेवाले के लिए नयी वरदियाँ बनवायी गयीं। अँग्रेजी और हिंदुस्तानी, दोनों ही प्रकार के व्यंजनों की व्यवस्था की गयी। अँग्रेजी खाने के लिए रायल होटल से बातचीत की गयी। इसमें बहुत सुविधा थी। यद्यपि चीजें बहुत महँगी थीं, लेकिन झंझट से नजात हो गयी। अन्यथा सारा भार नईम और उसके दोस्त गिरिधर पर पड़ता। हिंदुस्तानी भोजन के व्यवस्थापक गिरिधर हुए।

पूरे दो सप्ताह तक तैयारियाँ हुई थीं। नईम और गिरिधर तो कालेज में केवल मनोरंजन के लिए थे। पढ़ना-पढ़ाना तो उनको था नहीं, आमोद-प्रमोद ही में समय व्यतीत किया करते थे; कवि-सम्मेलन की भी ठहरी। कविजनों के नाम बुलावे भेजे गये। सारांश यह कि बड़े पैमाने पर प्रीतिभोज का प्रबंध किया गया और भोज हुआ भी विराट्। विद्यालय के नौकरों ने पूरियाँ बेची। विद्यालय के इतिहास में वह भोज चिरस्मरणीय रहेगा। मित्रों ने खूब बढ़-बढ़ कर हाथ मारे, दो-तीन मिसें भी खींच बुलायी गयीं। मिरज़ा नईम लूसी को घेर-घार कर ले ही आये। इसने भोजन को और भी रसमय बना दिया।

किंतु शोक, महाशोक, इस भोज का परिणाम अभागे चक्रधर के लिए कल्याणकारी न हुआ। चलते-चलते लज्जित और अपमानित होना पढा था। मित्रों की तो दिल्लगी थी और उस बेचारे की जान पर बन रही थी। सोचे, अब तो बिदा होते ही हैं, फिर मुलाकात हो या न हो। अब किस दिन के लिए सब्र करें? मन के प्रेमोद्गार को निकाल क्यों न लें। कलेजा चीरकर दिखा क्यों न दें। और लोग तो दावत खाने में जुटे हुए थे; और वह मदन-बाण-पीड़ित युवक बैठा सोच रहा था कि यह अभिलाषा क्योंकर पूरी हो? अब यह आत्मदमन क्यों? लज्जा क्यों? विरक्ति क्यों? गुप्त रोदन क्यों? मौन-मुखापेक्षा क्यों? अंतर्वेदना क्यों? बैठे-बैठे प्रेम को क्रियाशील बनाने के लिए मन में बल का संचार करते रहे, कभी देवताओं का स्मरण करते, कभी ईश्वर को अपनी भक्ति की याद दिलाते। अवसर की ताक में इस भाँति बैठे थे, जैसे बगुला मेंढक की ताक में बैठता है। भोज समाप्त हो गया। पान-इलाइची बँट चुकी, वियोगवार्ता हो चुकी। मिस लूसी अपनी श्रवणमधुर वाणी से हृदयों में हाहाकार मचा चुकी, और भोजशाला से निकलकर बाईसिकिल पर बैठी। उधर कवि-सम्मेलन में इस तरह मिसरा पढ़ा गया-

कोई दीवाना बनाये, कोई दीवाना बने।

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