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प्रेमचन्द की कहानियाँ 38

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9799
आईएसबीएन :9781613015360

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग


इधर चक्रधर चुपके से लूसी के पीछे हो लिए और साइकिल को भयंकर वेग से दौड़ाते हुए उसे आधे रास्ते में जा पकड़ा। वह इन्हें इस व्यग्रता से दौड़े आते देखकर सहम उठी कि कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी। बोली- वेल पंडितजी ! क्या बात है? आप इतने बदहवास क्यों हैं? कुशल तो है?

चक्रधर का गला भर आया। कम्पित स्वर से बोले- अब आपसे सदैव के लिए बिछुड़ ही जाऊँगा। यह कठिन विरह-पीड़ा कैसे सही जायगी ! मुझे तो शंका है, कहीं पागल न हो जाऊँ !

लूसी ने विस्मित होकर पूछा- आपकी मंशा क्या है? आप बीमार हैं क्या?

चक्रधर- आह डियर डार्लिंग, तुम पूछती हो, बीमार हूँ? मैं मर रहा हूँ, प्राण निकल चुके हैं केवल प्रेमाभिलाषा का अवलम्बन है !

यह कहकर आपने उसका हाथ पकड़ना चाहा। वह उनका उन्माद देखकर भयभीत हो गयी। क्रोध में आकर बोली- आप मुझे यहाँ रोककर मेरा अपमान कर रहे हैं। इसके लिए आपको पछताना पड़ेगा।

चक्रधर- लूसी, देखो चलते-चलते इतनी निष्ठुरता न करो। मैंने ये विरह के दिन किस तरह काटे हैं, सो मेरा दिल ही जानता है। मैं ही ऐसा बेहया हूँ कि अब तक जीता हूँ। दूसरा होता तो अब तक चल बसा होता। बस, केवल तुम्हारी सुधामयी पत्रिकाएँ ही मेरे जीवन का एकमात्र अधार थीं।

लूसी- मेरी पत्रिकाएँ ! कैसी? मैंने आपको कब पत्र लिखे ! आप कोई नशा तो नहीं खा आये हैं?

चक्रधर- डियर डार्लिंग, इतनी जल्द न भूल जाओ, इतनी निर्दयता न दिखाओ। तुम्हारे वे प्रेम-पत्र, जो तुमने मुझे लिखे हैं, मेरे जीवन की सबसे बड़ी सम्पत्ति रहेंगे। तुम्हारे अनुरोध से मैंने यह वेष धारण किया, अपना संध्या-हवन छोड़ा, यह अचार-व्यवहार ग्रहण किया। देखो तो जरा, मेरे हृदय पर हाथ रखकर, कैसी धड़कन हो रही है। मालूम होता है, बाहर निकल पड़ेगा। तुम्हारा यह कुटिल हास्य मेरे प्राण ही लेकर छोड़ेगा। मेरी अभिलाषाओं ...

लूसी- तुम भंग तो नहीं खा गये हो या किसी ने तुम्हें चकमा तो नहीं दिया है? मैं तुमको प्रेम-पत्र लिखती। हः हः। जरा अपनी सूरत तो देखो, खासे बनैले सुअर मालूम होते हो।

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