कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 39 प्रेमचन्द की कहानियाँ 39प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग
‘ऐसा कोई पुरुष नहीं है, जिस पर युवती अपनी मोहिनी न डाल सके।’
‘अगर तुम्हें विश्वास है कि तुम यह काम पूरा कर दिखाओगी, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मैं तो केवल उसे दंड देना चाहता हूं।’
‘तो हुक्म दे दीजिए कि वह इसी वक्त छोड़ दिया जाय।’
‘जनता कहीं यह तो न समझेगी कि सरकार डर गयी?’
‘नहीं, मेरे ख्याल में तो जनता पर इस व्यवहार का बहुत अच्छा असर पड़ेगा। लोग समझेगें कि सरकार ने जनमत का सम्मान किया है।’
‘लेकिन तुम्हें उसके घर जाते लोग देखेंगे तो मन में क्या कहेंगे?’
‘नकाब डालकर जाऊंगी, किसी को कानोंकान खबर न होगी।’
‘मुझे तो अब भी भय है कि वह तुम्हें संदेह की दृष्टि से देखेगा और तुम्हारे पंजे में न आयेगा, लेकिन तुम्हारी इच्छा है तो आजमा देखो।’
यह कहकर मिस्टर जौहरी ने मिस जोशी को प्रेममय नेत्रों से देखा, हाथ मिलाया और चले गए।
आकाश पर तारे निकले हुए थे, चैत की शीतल, सुखद वायु चल रही थी, सामने के चौड़े मैदान में सन्नाटा छाया हुआ था, लेकिन मिस जोशी को ऐसा मालूम हुआ मानों आपटे मंच पर खड़ा बोल रहा है। उसका शांत, सौम्य, विषादमय स्वरूप उसकी आंखों में समाया हुआ था।
प्रात:काल मिस जोशी अपने भवन से निकली, लेकिन उसके वस्त्र बहुत साधारण थे और आभूषण के नाम शरीर पर एक धागा भी न था। अलंकार-विहीन हो कर उसकी छवि स्वच्छ, जल की भांति और भी निखर गयी। उसने सड़क पर आकर एक तांगा लिया और चली।
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