कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 39 प्रेमचन्द की कहानियाँ 39प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग
''यहाँ न आया करो।''
''यह मेरे बस की बात नहीं।''
माधुरी एक क्षण तक विचार करके बोली- ''एक बात कहूँ मानोगे, चलो हम तुम किसी दूसरे नगर की राह लें।''
''केवल इसलिए कि कुछ लोग मुझसे खार खाते हैं।''
''खार नहीं खाते, तुम्हारी जान के गाहक हैं।''
दयाकृष्ण उसी अविचलित भाव से बोला- ''जिस दिन प्रेम का यह पुरस्कार मिलेगा, वह मेरे जीवन का नया दिन होगा माधुरी, इससे अच्छी मृत्यु और क्या हो सकती है। तब मैं तुमसे पृथक् न रहकर तुम्हारे मन में, तुम्हारी स्मृति में रहूँगा।''
माधुरी ने कोमल हाथ से उसके गाल पर थपकी दी। उसकी आँखें भर आई थीं। इन शब्दों में जो प्यार भरा हुआ था, वह जैसे पिचकारी की धार की तरह उसके हृदय में समा गया। ऐसी विकल वेदना! ऐसा नशा! इसे वह क्या कहे।
उसने करुण स्वर में कहा- ''ऐसी बातें न किया करो कृष्ण, नहीं मैं सच कहती हूँ एक दिन जहर खाकर तुम्हारे चरणों पर सो जाऊँगी। तुम्हारे इन शब्दों में न जाने क्या जादू था कि मैं जैसे फुँक उठी। अब आप खुदा के लिए यहाँ न आया कीजिए, नहीं देख लेना, मैं एक दिन प्राण दे दूँगी। तुम क्या जानो, हत्यारा सिंगार किस बुरी तरह तुम्हारे पीछे पड़ा हुआ है। मैं उसके शोहदों की खुशामद करते-करते हार गई। कितना कहती हूँ दयाकृष्ण से मेरा कोई संबंध नहीं, उसके सामने तुम्हारी कितनी निंदा करती हूँ कितना कोसती हूँ लेकिन उस निर्दयी को मुझ पर विश्वास नहीं आता। तुम्हारे लिए मैंने इन गुंडों की कितनी मिन्नतें की हैं, उनके हाथों कितना अपमान सहा है, वह तुमसे न कहना ही अच्छा है। जिनका मुँह देखना भी मैं अपनी शान के खिलाफ़ समझती हूँ उनके पैरों पड़ी हूँ लेकिन ये कुत्ते हड्डियों के टुकड़े के टुकड़े पाकर और भी शेर होते जाते हैं। मैं अब उनसे तंग आ गई हूँ और तुमसे हाथ जोड़कर कहती हूँ कि यहाँ से किसी ऐसी जगह चले चलो, जहाँ हमें कोई न जानता हो। वहाँ शांति के साथ पड़े रहें। मैं तुम्हारे साथ सब कुछ झेलने को तैयार हूँ। आज इसका निश्चय कराए बिना मैं तुम्हें न जाने दूँगी। मैं जानती हूँ तुम्हें मुझ पर अब भी विश्वास नहीं है। तुम्हें संदेह है कि मैं तुम्हारे साथ कपट करूँगी।''
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