कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 39 प्रेमचन्द की कहानियाँ 39प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग
विश्वे०– अपने बाप के तुम्हीं चतुर बेटे नहीं हो। इतने दिनों तक कान न हिलाये, जब मैंने सोना बना लिया तब हिस्सा बाँटने चले हो? तुमसे माँगने तो नहीं गया था।
जागे०– तो अब जमीन न मिलेगी।
रामे०– भाई का हक मार कर कोई सुखी नहीं रहता।
विश्वे०– जमीन हमारी है। भाई की नहीं।
जागे०– तो आप सीधे न दीजिएगा।
विश्वे०– न सीधे दूँगा, न टेढ़े से दूँगा। अदालत करो।
जागे०– अदालत करने की मुझे सामर्थ्य नहीं है; पर इतना कहे देता हूँ कि जमीन चाहे मुझे न मिले; पर आपके पास न रहेगी।
विश्वे०– यह धमकी जा कर किसी और को दो।
जागे०– फिर यह न कहियेगा कि भाई हो कर वैरी हो गया।
विश्वे०– एक हजार गाँठ में रख कर जो कुछ जी में आये, करना।
जागे०– मैं गरीब आदमी हजार रुपये कहाँ से लाऊँगा; पर कभी-कभी भगवान दीनों पर दयालु हो जाते हैं।
विश्वे०– मैं इस डर से बिल नहीं खोद रहा हूँ।
रामेश्वरराय तो चुप ही रहा पर जागेश्वर इतना क्षमाशील न था। वकील से बातचीत की। वह अब आधी नहीं; पूरी जमीन पर दाँत लगाये हुए था।
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