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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800
आईएसबीएन :9781613015377

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


विश्वे०– अपने बाप के तुम्हीं चतुर बेटे नहीं हो। इतने दिनों तक कान न हिलाये, जब मैंने सोना बना लिया तब हिस्सा बाँटने चले हो? तुमसे माँगने तो नहीं गया था।

जागे०– तो अब जमीन न मिलेगी।

रामे०– भाई का हक मार कर कोई सुखी नहीं रहता।

विश्वे०– जमीन हमारी है। भाई की नहीं।

जागे०– तो आप सीधे न दीजिएगा।

विश्वे०– न सीधे दूँगा, न टेढ़े से दूँगा। अदालत करो।

जागे०– अदालत करने की मुझे सामर्थ्य नहीं है; पर इतना कहे देता हूँ कि जमीन चाहे मुझे न मिले; पर आपके पास न रहेगी।

विश्वे०– यह धमकी जा कर किसी और को दो।

जागे०– फिर यह न कहियेगा कि भाई हो कर वैरी हो गया।

विश्वे०– एक हजार गाँठ में रख कर जो कुछ जी में आये, करना।

जागे०– मैं गरीब आदमी हजार रुपये कहाँ से लाऊँगा; पर कभी-कभी भगवान दीनों पर दयालु हो जाते हैं।

विश्वे०– मैं इस डर से बिल नहीं खोद रहा हूँ।

रामेश्वरराय तो चुप ही रहा पर जागेश्वर इतना क्षमाशील न था। वकील से बातचीत की। वह अब आधी नहीं; पूरी जमीन पर दाँत लगाये हुए था।

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