कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 42 प्रेमचन्द की कहानियाँ 42प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग
मुलिया ने सिसकते हुए कहा- 'मुझसे आज एक अपराध हुआ है। उसे क्षमा कर दो।'
कल्लू उठ बैठा- 'क्या बात है? कहो तो, रोती क्यों हो? '
मुलिया- 'राजा तमाखू माँगने नहीं आया था। मैंने तुमसे झूठ कहा था।'
कल्लू हँसकर बोला- 'वह तो मैं पहले ही समझ गया था।'
मुलिया- 'वह मेरे लिए चुंदरी लाया था।'
'तुमने लौटा दी?'
मुलिया काँपती हुई बोली- 'मैंने ले ली। कहते थे, मैं जहर-माहुर खा लूँगा।'
कल्लू निर्जीव की भाँति खाट पर गिर पड़ा और बोला- 'तो रूप मेरे बस का नहीं है। देव ने कुरूप बना दिया, तो सुन्दर कैसे बन जाऊँ?'
कल्लू ने अगर मुलिया को खौलते हुए तेल में डाल दिया होता, तो भी उसे इतनी पीड़ा न होती। कल्लू उस दिन से कुछ खोया-खोया-सा रहने लगा। जीवन में न वह उत्साह रहा, न वह आनंद। हँसना-बोलना भूल-सा गया। मुलिया ने उसके साथ जितना विश्वासघात किया था, उससे कहीं ज्यादा उसने समझ लिया। और यह भ्रम उसके हृदय में केवड़े के समान चिपट गया। वह घर अब उसके लिए केवल लेटने-बैठने का स्थान था और मुलिया केवल भोजन बना देनेवाली मशीन। आनन्द के लिए वह कभी-कभी ताड़ीखाने चला जाता, या चरस के दम लगाता। मुलिया उसकी दशा देख-देख अन्दर-ही-अन्दर कुढ़ती थी। वह उस बात को उसके दिल से निकाल देना चाहती थी, इसलिए उसकी सेवा और मन लगा कर करती। उसे प्रसन्न करने के लिए बार-बार प्रयत्न करती; पर वह जितना ही उसको खींचने की चेष्टा करती थी, उतना ही वह उससे विचलता था, जैसे कोई कँटिये में फँसी हुई मछली हो। कुशल यह था कि राजा जिस अंग्रेज के यहाँ खानसामा था, उसका तबादला हो गया और राजा उसके साथ चला गया था, नहीं तो दोनों भाइयों में से किसी-न-किसी का जरूर खून हो जाता। इस तरह साल-भर बीत गया।
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