कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 42 प्रेमचन्द की कहानियाँ 42प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग
रत्न- यह सच है, पर आग में कूदना ठीक नहीं।
सिपाही- भैया, तुम कहते क्या हो? सिपाही का तो जीवन ही आग में कूदने के लिए है। तुम्हारे हुक्म की देर है, फिर हमारा जीवट देखना।
रत्न- अभी हम लोग बहुत थके हुए हैं। जरा विश्राम कर लेना अच्छा है।
सिपाही- नहीं भैया, उन सभों को हमारी आहट मिल गई, तो गजब हो जाएगा।
रत्न- तो फिर धावा ही कर दो।
एक क्षण में योद्धाओं ने घोड़ो की बागें उठा दीं, और अस्त्र सँभाले हुए शत्रुसेना पर लपके। किंतु पहाड़ी पर पहुँचते ही इन लोगों को मालूम हो गया कि शत्रु-दल गाफिल नहीं है। इन लोगों ने उनके विषय में जो अनुमान किया था, वह मिथ्या था। वे सजग ही नहीं थे, स्वयं किले पर धावा करने की तैयारियाँ कर रहे थे। इन लोगों ने जब उन्हें सामने आते देखा, समझ गए भूल हुई लेकिन अब सामना करने के सिवा चारा ही क्या था। फिर भी वे निराश न थे। रत्नसिंह जैसे योद्धा के साथ इन्हें कोई शंका न थी। वह इससे कठिन अवसरों पर अपने रण-कौशल से विजय लाभ कर चुका था। क्या वह आज अपना जौहर न दिखाएगा? सारी आँखें रत्नसिंह को खोज रही थीं, पर उसका वहाँ कहीं पता नहीं था। कहाँ चला गया, यह कोई न जानता था।
पर वह कहीं न जा सकता। अपने साथियों को इस कठिन अवस्था में छोड़कर कहीं नहीं जा सकता, सम्भव नहीं। अवश्य ही वह यहीं है, और हारी हुई बाजी को जीतने की कोई युक्ति सोच रहा है।
एक क्षण में शत्रु इनके सामने आ पहुँचे। इतनी बहुसंख्य सेना के सामने ये मुठ्ठी भर आदमी क्या कर सकते थे? चारों ओर से रत्नसिंह की पुकार होने लगी- भैया, तुम कहाँ हो? हमें क्या हुक्म देते हो? देखते हो वे लोग सामने आ पहुँचे, पर अभी तक मौन खड़े हो। सामने आकर हमें मार्ग दिखाओ, हमारा उत्साह बढ़ाओ।
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