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प्रेमचन्द की कहानियाँ 42

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9803
आईएसबीएन :9781613015407

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग


पर अब भी रत्नसिंह न दिखाई दिया। यहाँ तक कि शत्रु-दल सिर पर आ पहुँचा, और दोनों दलों में तलवारें चलने लगीं। बुंदेलों ने प्राण हथेली पर लेकर लड़ना शुरू किया, पर एक को एक बहुत होता है, एक और दस का मुकाबला ही क्या? यह लड़ाई न थी, प्राणों का जुआ था। बुंदेलों में आशा का अलौकिक बल था। खूब लड़े, पर क्या मजाल कि कदम पीछे हटे। उनमें अब जरा भी संगठन न था। जिससे जितना आगे बढ़ते बना, बढ़ा। अंत क्या होगा, इसकी किसी को चिंता न थी। कोई तो शत्रुओं की सफें चीरता हुआ सेनापति के समीप पहुँच गया, कोई उसके हाथी पर चढ़ने की चेष्टा करते हुए मारा गया। उनका अमानुषिक साहस देखकर शत्रुओं के मुँह से भी वाह-वाह निकलती थी। लेकिन ऐसे योद्धाओं ने नाम पाया है, विजय नहीं पायी। एक घंटे में रंग मंच का परदा गिर गया, तमाशा खत्म हो गया। एक आँधी थी, जो आयी और वृक्षों को उखाड़ती हुई चली गई। संगठित रहकर ये ही मुठ्ठी भर आदमी दुश्मनों के दाँत खट्टे कर देते, पर जिस पर संगठन का भाग था उसका कहीं पता न था। विजयी मरहठों ने एक-एक लाश ध्यान से देखी। रत्नसिंह उनकी आँखों में खटकता था। उसी पर उनके दाँत लगे थे। रत्नसिंह के जीते जी उन्हें नींद न आती थी। लोगों ने पहाड़ी की एक-एक चट्टान का मंथन कर डाला, पर रत्न हाथ न आया। विजय हुई, पर अधूरी।

चिंता के हृदय में आज न जाने क्यों भाँति-भाँति की शंकाए उठ रही थीं। वह कभी इतनी दुर्बल न थी। बुंदेलों की हार ही क्यों होगी, इसका कोई कारण तो वह न बता सकती थी, पर वह भावना उसके विकल हृदय से किसी तरह न निकलती थी। उस अभागिन के भाग्य में प्रेम का सुख भोगना लिखा होता, तो क्या बचपन ही में माँ मर जाती, पिता के साथ वन-वन घूमना पड़ता, खोहों और कंदराओं में रहना पड़ता! और वह आश्रम भी तो बहुत दिन न रहा। पिता भी मुँह मोड़कर चल दिए। तब से एक दिन भी तो आराम से बैठना नसीब न हुआ। विधना क्या अब अपना क्रूर कौतुक छोड़ देगा? आह! उसके दुर्बल हृदय में इस समय एक विचित्र भावना उत्पन्न हुई- ईश्वर उसके प्रियतम को आज सकुशल लाये, तो वह उसे लेकर किसी दूर के गाँव में जा बसेगी, पतिदेव की सेवा और आराधना में जीवन सफल करेगी। इस संग्राम से सदा के लिए मुँह मोड़ लेगी। आज पहली बार नारीत्व का भाव उसके मन में जाग्रत हुआ।

सन्ध्या हो गई थी, सूर्य भगवान किसी हारे हुए सिपाही की भाँति मस्तक झुकाये कोई आड़ खोज रहे थे। सहसा एक सिपाही नंगे सिर, नंगे पाँव, निःशस्त्र उसके सामने आकर खड़ा हो गया। चिंता पर वज्रपात हो गया। एक क्षण तक मर्माहत सी बैठी रही। फिर उठकर घबरायी हुई सैनिक के पास आयी, और आतुर स्वर में पूछा- कौन-कौन बचा?

सैनिक ने कहा- कोई नहीं।

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