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प्रेमचन्द की कहानियाँ 44

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9805
आईएसबीएन :9781613015421

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग


जन्माष्टमी का शुभ दिन आया। पण्डितजी का स्वाभाविक आलस्य इन दो-तीन दिन के लिए गायब हो जाता था। वे बड़े उत्साह से झाँकी बनाने में लग जाते थे। गोदावरी यह व्रत बिना जल के रखती थी और पण्डितजी तो कृष्ण के उपासक ही थे। अब उनके अनुरोध से गोमती ने भी निर्जल व्रत रखने का साहस किया, पर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, जब महरी ने आकर उससे कहा– बड़ी बहू निर्जल न रहेंगी, उनके लिए फलाहार मँगा दो।

सन्ध्या समय गोदावरी ने मान-मन्दिर जाने के लिए इक्के की फरमाइश की। गोमती को यह फरमाइश बुरी मालूम हुई। आज के दिन इक्कों का किराया बहुत बढ़ जाता था। मान-मन्दिर कुछ दूर भी नहीं था। इससे वह चिढ़कर बोली– व्यर्थ रुपया क्यों फेंका जाए? मन्दिर कौन बड़ी दूर है। पाँव-पाँव क्यों नहीं चली जातीं?

हुक्म चला देना तो सहज है। अखरता उसे है, जो बैल की तरह कमाता है।

तीन साल पहले गोमती ने इसी तरह की बातें गोदावरी के मुँह से सुनी थीं। आज गोदावरी को भी गोमती के मुँह से वैसी ही बातें सुननी पड़ीं। समय की गति!

इन दिनों गोदावरी बड़े उदासीन भाव से खाना बनाती थी। पण्डितजी के पथ्यापथ्य के विषय में भी अब उसे पहले की-सी चिन्ता न थी। एक दिन उसने महरी से कहा कि अन्दाज से मसाले निकाल पीस ले। मसाले दाल में पड़े तो मिर्च जरा अधिक तेज हो गई। मारे भय के पण्डितजी से वह न खाई गई। अन्य आलसी मनुष्यों की तरह चटपटी वस्तुएँ उन्हें भी बहुत प्रिय थीं, परन्तु वे रोग से हारे हुए थे। गोमती ने जब यह सुना तो भौंह चढ़ाकर बोली– क्या बुढ़ापे में जबान गज भर की हो गई है?

कुछ इसी तरह से कटु वाक्य एक बार गोदावरी ने भी कहे थे। आज उसकी बारी सुनने की थी।

आज गोदावरी गंगा से गले मिलने आई है। तीन साल हुए वह वर और वधू को लेकर गंगाजी को पुष्प और दूध चढ़ाने गयी थी। आज वह अपने प्राण समर्पण करने आयी है। आज वह गंगाजी की आनन्दमयी लहरों में विश्राम करना चाहती है।

गोदावरी को अब उस घर में एक क्षण रहना भी दुस्सह हो गया था। जिस घर में रानी बनकर रही, उसी में चेरी बनकर रहना उस जैसी सगर्वा स्त्री के लिए असम्भव था।

अब इस घर से गोदावरी का स्नेह उस पुरानी रस्सी की तरह था, जो बराबर गाँठ देने पर भी कहीं न कहीं से टूट ही जाती है। उसे गंगाजी की शरण लेने के सिवाय और कोई उपाय न सूझता था।

कई दिन हुए उसके मुँह से बार-बार जान दे देने की धमकी सुन, पण्डितजी खिझलाकर बोल उठे थे– तुम किसी तरह मर भी तो जातीं। गोदावरी उन विष भरे शब्दों को अब तक न भूली थी। चुभने वाली बातें उसको भी न भूलती थीं। आज गोमती ने भी वही बातें कही थीं, तथापि गोदावरी को अपनी बातें तो भूल-सी गई थीं, केवल गोमती और पण्डितजी के वाक्य ही उसके कानों में गूँज रहे थे। पण्डितजी ने उसे डाँटा तक नहीं। मुझ पर ऐसा घोर अन्याय, और वे मुँह तक न खोलें!

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