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प्रेमचन्द की कहानियाँ 44

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9805
आईएसबीएन :9781613015421

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग


आज सब लोगों के सो जाने पर गोदावरी घर से बाहर निकली। आकाश में काली घटाएँ छाई थीं। वर्षा की झड़ी लग रही थी। उधर उसके नेत्रों से भी आँसुओं की धारा बह रही थी! प्रेम का बन्धन कितना कोमल है और दृढ़ भी कितना! कोमल है अपमान के सामने, दृढ़ है वियोग के सामने। गोदावरी चौखट पर खड़ी-खड़ी घण्टों रोती रही। कितनी ही पिछली बातें उसे याद आती थीं। हा! कभी यहाँ उसके लिए प्रेम भी था, मान भी था, जीवन का सुख भी था। शीघ्र ही पण्डित जी के वे कठोर शब्द भी उसे याद आ गए। आँखों से फिर पानी की धारा बहने लगी। गोदावरी घर से चल खड़ी हुई।

इस समय यदि पण्डित देवदत्त नंगे सिर, नंगे पाँव पानी में भीगते, दौड़ते आते और गोदावरी के कम्पित हाथों को पकड़कर अपने धड़कते हुए हृदय से उसे लगाकर कहते ‘‘प्रिये’’! इससे अधिक और उनके मुँह से कुछ भी न निकलता, तो भी क्या गोदावरी अपने विचारों पर स्थिर रह सकती?

कुआर का महीना था। रात को गंगा की लहरों की गरज बड़ी भयानक मालूम होती थी। साथ ही बिजली तड़प जाती, तब उसकी उछलती हुई लहरें प्रकाश से उज्जवल हो जाती थीं। मानो प्रकाश उन्मत्त हाथी का रूप धारण कर किलोलें मार रहा हो। जीवन-संग्राम का एक विशाल दृश्य आँखों के सामने आ रहा था।

गोदावरी के हृदय में भी इस समय अनेक लहरें बड़े वेग से उठतीं, आपस में टकरातीं और ऐंठती हुई लोप हो जाती थीं। कहाँ? अन्धकार में।

क्या यह गरजने वाली गंगा गोदावरी को शांति प्रदान कर सकती है? उसकी लहरों में सुधासम मधुर ध्वनि नहीं है और न उसमें करुणा का विकास ही है। वह इस समय उद्दंडता और निर्दयता की भीषण मूर्ति धारण किए है।

गोदावरी किनारे बैठी क्या सोच रही थी, कौन कह सकता है? क्या अब उसे यह खटका नहीं लगा था कि पण्डित देवदत्त आते न होंगे! प्रेम का बन्धन कितना मजबूत है।

उसी अंधकार में ईर्ष्या, निष्ठुरता और नैराश्य की सतायी हुई वह अबला गंगा की गोद में गिर पड़ी! लहरें झपटीं और उसे निगल गईं!!!

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