कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
“बोलते क्यों नहीं?”
मैं फिर भी चुप रहा।
“ओह!
तुम समझते हो कि मैं तुम्हे नहीं पहचानती। यह तुम्हारे बायें गाल पर जो
दाढ़ी के पास चोट है, वह तुमको पहचानने से मुझे वञ्चित कर ले, ऐसा नहीं हो
सकता। तुम मुरली हो! हो न! बोलो।”
“हाँ।” मुझसे कहते ही
बना।
“अच्छा तो सुनो, मैं इस
पशु से ऊब गयी हूँ। और अब मेरे पास कुछ नहीं बचा।
जो कुछ लेकर मैं घर से चली थी, वह सब खर्च हो गया।”
“तब?” - मैंने विरक्त
होकर कहा।
“यही
कि मुझे यहाँ से ले चलो। वह जितनी शराब थी, सब पीकर आज बेसुध-सा है। मैं
तुमको इतने दिनों तक भी पहचान कर क्यों नहीं बोली, जानते हो?”
“नहीं।”
“तुम्हारी परीक्षा ले रही
थी। मुझे विश्वास हो गया कि तुम मेरे सच्चे
चाहने वाले हो।”
“इसकी भी परीक्षा कर ली
थी तुमने?” मैंने व्यंग से कहा।
“उसे
भूल जाओ। वह सब बड़ी दु:खद कथा है। मैं किस तरह घरवालों की सहायता से इसके
साथ भागने के लिए बाध्य हुई, उसे सुनकर क्या करोगे? चलो, मैं अभी चलना
चाहती हूँ। स्त्री-जीवन की भूख कब जग जाती है, इसको कोई नहीं जानता; जान
लेने पर तो उसको बहाली देना असम्भव है। उसी क्षण को पकडऩा पुरुषार्थ है।”
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