कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
”बाबूजी, नमस्ते! आज कहिए
तो खेल दिखाऊँ।”
”नहीं जी, अभी हम लोग
जलपान कर रहे हैं।”
”फिर इसके बाद क्या
गाना-बजाना होगा, बाबूजी?”
”नहीं
जी तुमको…” क्रोध से मैं कुछ और कहने जा रहा था। श्रीमतीजी ने कहा,
”दिखलाओ जी, तुम तो अच्छे आए। भला, कुछ मन तो बहले।” मैं चुप हो गया,
क्योंकि श्रीमतीजी की वाणी में वह माँ की-सी मिठास थी, जिसके सामने किसी
भी लड़के को रोका नहीं जा सकता। उसने खेल आरम्भ किया।
उस दिन
कार्निवल के सब खिलौने उसके खेल में अपना अभिनय करने लगे। भालू मनाने लगा।
बिल्ली रूठने लगी। बन्दर घुड़कने लगा। गुड़िया का ब्याह हुआ। गुड्डा वर
काना निकला। लड़के की वाचालता से ही अभिनय हो रहा था। सब हँसते-हँसते
लोट-पोट हो गए।
मैं सोच रहा था। बालक को
आवश्यकता ने कितना शीघ्र चतुर बना दिया। यही तो
संसार है।
ताश
के सब पत्ते लाल हो गए। फिर सब काले हो गए। गले की सूत की डोरी
टुकड़े-टुकड़े होकर जुट गई। लट्टू अपने से नाच रहे थे। मैंने कहा, ”अब हो
चुका। अपना खेल बटोर लो, हम लोग भी अब जाएँगे।”
श्रीमती जी ने धीरे से
उसे एक रुपया दे दिया। वह उछल उठा।
मैंने कहा, ”लड़के!”
”छोटा जादूगर कहिए। यही
मेरा नाम है। इसी से मेरी जीविका है।”
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