कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
“अच्छा
चलो, खोजें।” कहकर आगन्तुक ने बालिका का हाथ पकड़ लिया। दोनो बीहड़ वन में
घुसे। ठोकरें लग रही थीं। अँगूठे क्षत-विक्षत थे। साहसिक की लम्बी डगों के
साथ बालिका हाँफती हुई चली जा रही थी।
सहसा साथी ने कहा-”ठहरो,
देखो, वह क्या है?”
श्यामा
सघन, तृण-संकुल शैल-मण्डप पर हिरण्यलता तारा के समान फूलों से लदी हुई
मन्द मारुत से विकम्पित हो रही थी। पश्चिम में निशीथ के चतुर्थ प्रहर में
अपनी स्वल्प किरणों से चतुदर्शी का चन्द्रमा हँस रहा था। पूर्व प्रकृति
अपने स्वप्न-मुकुलित नेत्रों को आलस से खोल रही थी। वनलता का वदन सहसा खिल
उठा। आनन्द से हृदय अधीर होकर नाचने लगा। वह बोल उठी-”यही तो है।”
साहसिक अपनी सफलता पर
प्रसन्न होकर आगे बढ़ाना चाहता था कि वनलता ने कहा-
”ठहरो, तुम्हें एक बात बतानी होगी।”
“वह क्या है?”
“जिसे तुमने कभी प्यार
किया हो, उससे कोई आशा तो नहीं रखते?”
“सुन्दरी! पुण्य की
प्रसन्नता का उपभोग न करने से वह पाप हो जायगा।”
“तब तुमने किसी को प्यार
किया है?”
“क्यों? तुम्हीं को!”
कहकर आगे बढ़ा!
“सुनो,
सुनो; जिसने चन्द्रशालिनी ज्योतिष्मती रजनी के चारों पहर कभी बिना पलक लगे
प्रिय की निश्छल चिन्ता में न बिताये हों, उसे ज्योतिष्मती न छूनी चाहिए।
इसे जंगल के पवित्र प्रेमी ही छूते हैं, ले आते हैं, तभी इसका गुण....”
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