कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
उसने किसी तरह दो घूँट
जल गले से उतार कर इन लोगों की ओर देखा। उसकी आँखे कह रही थीं कि ‘आओ,
मेरी दरिद्रता का स्वाद लेनेवाले धनी विचारकों! और सुख तो तुम्हें मिलते
ही हैं, एक न सही!’ अपने पिता को बातें करते देखकर वह घबरा उठती थी। वह
डरती थी कि बुड्ढा न-जाने क्या-क्या कह बैठेगा। देवनिवास चुपचाप उसका मुँह
देखने लगा। नीरा बालिका न थी। स्त्रीत्व के सब व्यंजन थे, फिर भी जैसे
दरिद्रता के भीषण हाथों ने उसे दबा दिया था, वह सीधी ऊपर नहीं उठने पाई।
क्या तुमको ईश्वर में विश्वास नहीं है?—अमरनाथ ने गम्भीरता से पूछा।
‘आलोचक’
में एक लेख मैंने पढ़ा था! वह इसी प्रकार के उलाहने से भरा था, कि
‘वर्तमान जनता में ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव बढ़ता जा रहा है, और
इसीलिए वह दुखी है।’ - यह पढक़र मुझे तो हँसी आ गई।
बुड्ढे ने अविचल भाव से
कहा- हँसी आ गई! कैसे?
दु:ख की बात है। —अमरनाथ
ने कहा।
दु:ख
की बात सोच कर ही तो हँसी आ गई। हम मूर्ख मनुष्यों ने त्राण की—शरण की—आशा
से ईश्वर पर पूर्वकाल में विश्वास किया था, परस्पर के विश्वास और सद्भाव
को ठुकराकर। मनुष्य, मनुष्य का विश्वास नहीं कर सका; इसीलिए तो एक सुखी
दूसरे दुखी की ओर घृणा से देखता था। दुखी ने ईश्वर का अवलम्बन लिया, तो भी
भगवान् ने संसार के दुखों की सृष्टि बन्द कर दी क्या? मनुष्य के बूते का न
रहा, तो क्या वह भी...? कहते-कहते बूढ़े की आँखों से चिनगारियाँ निकलने
लगीं; किन्तु वे अग्निकण गलने लगे और उसके कपोलों के गढ़े में वह द्रव
इकट्ठा होने लगा। अमरनाथ क्रोध से बुड्ढे को देख रहा था; किन्तु देवनिवास
उस मलिना नीरा की उत्कण्ठा और खेद-भरी मुखाकृति का अध्ययन कर रहा था।
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