कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
अब
बूढ़ा नीरा की ओर देख रहा था और नीरा की आँखे बूढ़े को आगे न बोलने की शपथ
दिला रही थीं; किन्तु उसने फिर कहा ही— या नीरा को, जिसे तुम बड़ी देर से
देख रहे हो, अपने घर लिवा जाने की बड़ी उत्कण्ठा है! क्षमा करना! मैं
अविश्वासी हो गया हूँ न! क्यों, जानते हो? जब कुलियों के लिए इसी सीली,
गन्दी और दुर्गन्धमयी भूमि में एक सहानुभूति उत्पन्न हुई थी, तब मुझे यह
कटु अनुभव हुआ था कि वह सहानुभूति भी चिरायँध से ख़ाली न थी। मुझे एक
सहायक मिले थे और मैं यहाँ से थोड़ी दूर पर उनके घर रहने लगा था।
नीरा से अब न रहा गया।
वह बोल उठी— बाबा, चुप न
रहोगे; खाँसी आने लगेगी।
ठहर
नीरा! हाँ तो महाशय जी, मैं उनके घर रहने लगा था। और उन्होंने मेरा आतिथ्य
साधारणत: अच्छा ही किया। एक ऐसी ही काली रात थी। बिजली बादलों में चमक रही
थी और मैं पेट भरकर उस ठण्डी रात में सुख की झपकी लेने लगा था। इस बात को
बरसों हुए; तो भी मुझे ठीक स्मरण है कि मैं जैसे भयानक सपना देखता हुआ
चौंक उठा। नीरा चिल्ला रही थी! क्यों नीरा?
अब नीरा हताश हो गई
थी और उसने बूढ़े को रोकने का प्रयत्न छोड़ दिया था। वह एकटक बूढ़े का
मुँह देख रही थी। बुड्ढे ने फिर कहना आरम्भ किया— हाँ तो नीरा चिल्ला रही
थी। मैं उठकर देखता हूँ, तो मेरे वह परम सहायक महाशय इसी नीरा को दोनों
हाथ से पकड़कर घसीट रहे थे और यह बेचारी छूटने का व्यर्थ प्रयत्न कर रही
थी। मैंने अपने दोनों दुर्बल हाथों को उठाकर उस नीच उपकारी के ऊपर दे
मारा। वह नीरा को छोड़कर ‘पाजी, बदमाश, निकल मेरे घर से’ कहता हुआ मेरा
अकिंचन सामान बाहर फेंकने लगा।
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