कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
बाहर ओले-सी बूँदें पड़
रही थीं
और बिजली कौंधती थी। मैं नीरा को लिये सर्दी से दाँत किटकिटाता हुआ एक
ठूँठे वृक्ष के नीचे रात भर बैठा रहा। उस समय वह मेरा ऐश्वर्यशाली सहायक
बिजली के लैम्पों में मुलायम गद्दे पर सुख की नींद सो रहा था। यद्यपि मैं
उसे लौटकर देखने नहीं गया, तो भी मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि उसके सुख
में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित करने का दण्ड देने के लिए भगवान् का
न्याय अपने भीषण रूप में नहीं प्रकट हुआ।
मैं रोता था—पुकारता
था; किन्तु वहाँ सुनता कौन है! तुम्हारा बदला लेने के लिए भगवान् नहीं
आये, इसीलिए तुम अविश्वास करने लगे! लेखकों की कल्पना का साहित्यिक न्याय
तुम सर्वत्र प्रत्यक्ष देखना चाहते हो न! - निवास ने तत्परता से कहा।
क्यों
न मैं ऐसा चाहता? क्या मुझे इतना भी अधिकार न था? तुम समाचार-पत्र पढ़ते
हो न? अवश्य! तो उसमें कहानियाँ भी कहीं-कहीं पढ़ लेते होगे और उनकी
आलोचनाएँ भी?
हाँ, तो फिर!
जैसे एक साधारण आलोचक
प्रत्येक लेखक से अपने मन की कहानी कहलाया चाहता है और हठ करता है कि
नहीं, यहाँ तो ऐसा न होना चाहिए था; ठीक उसी तरह तुम सृष्टिकर्ता से अपने
जीवन की घटनावली अपने मनोनुकूल सही कराना चाहते हो। महाशय! मैं भी इसका
अनुभव करता हूँ कि सर्वत्र यदि पापों का भीषण दण्ड तत्काल ही मिल जाया
करता, तो यह सृष्टि पाप करना छोड़ देती। किन्तु वैसा नहीं हुआ। उलटे यह एक
व्यापक और भयानक मनोवृत्ति बन गई है कि मेरे कष्टों का कारण कोई दूसरा है।
इस तरह मनुष्य अपने कर्मों को सरलता से भूल सकता है। क्या तुमने अपने
अपराधों पर विचार किया है? - निवास बड़े वेग में बोल रहा था।
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