कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
युवक-कुमार
तीर-सा निकल गया। सिन्धुदेश का तुरंग प्रभात के पवन से पुलकित हो रहा था।
घूमता-घूमता अरुण उसी मधूक-वृक्ष के नीचे पहुँचा, जहाँ मधूलिका अपने हाथ
पर सिर धरे हुए खिन्न-निद्रा का सुख ले रही थी।
अरुण ने देखा, एक
छिन्न माधवीलता वृक्ष की शाखा से च्युत होकर पड़ी है। सुमन मुकुलित, भ्रमर
निस्पन्द थे। अरुण ने अपने अश्व को मौन रहने का संकेत किया, उस सुषमा को
देखने लिए, परन्तु कोकिल बोल उठा। जैसे उसने अरुण से प्रश्न किया- छि:,
कुमारी के सोये हुए सौन्दर्य पर दृष्टिपात करनेवाले धृष्ट, तुम कौन?
मधूलिका की आँखे खुल
पड़ीं। उसने देखा, एक अपरिचित युवक। वह संकोच से उठ
बैठी। - भद्रे! तुम्हीं न कल के उत्सव की सञ्चालिका रही हो?
उत्सव! हाँ, उत्सव ही तो
था।
कल उस सम्मान....
क्यों आपको कल का स्वप्न
सता रहा है? भद्र! आप क्या मुझे इस अवस्था में
सन्तुष्ट न रहने देंगे?
मेरा हृदय तुम्हारी उस
छवि का भक्त बन गया है, देवि!
मेरे उस अभिनय का - मेरी
विडम्बना का। आह! मनुष्य कितना निर्दय है,
अपरिचित! क्षमा करो, जाओ अपने मार्ग।
सरलता
की देवि! मैं मगध का राजकुमार तुम्हारे अनुग्रह का प्रार्थी हूँ - मेरे
हृदय की भावना अवगुण्ठन में रहना नहीं जानती। उसे अपनी....।
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