कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
दुबली होने पर भी
उसके अंग पर तपस्या की कान्ति थी। आस-पास के कृषक उसका आदर करते। वह एक
आदर्श बालिका थी। दिन, सप्ताह, महीने और वर्ष बीतने लगे।
शीतकाल
की रजनी, मेघों से भरा आकाश, जिसमें बिजली की दौड़-धूप। मधूलिका का छाजन
टपक रहा था! ओढऩे की कमी थी। वह ठिठुरकर एक कोने में बैठी थी। मधूलिका
अपने अभाव को आज बढ़ाकर सोच रही थी। जीवन से सामञ्जस्य बनाये रखने वाले
उपकरण तो अपनी सीमा निर्धारित रखते हैं; परन्तु उनकी आवश्यकता और कल्पना
भावना के साथ बढ़ती-घटती रहती है। आज बहुत दिनों पर उसे बीती हुई बात
स्मरण हुई। दो, नहीं-नहीं, तीन वर्ष हुए होंगे, इसी मधूक के नीचे प्रभात
में-तरुण राजकुमार ने क्या कहा था?
वह अपने हृदय से पूछने
लगी-उन
चाटुकारी के शब्दों को सुनने के लिए उत्सुक-सी वह पूछने लगी- क्या कहा था?
दु:ख-दग्ध हृदय उन स्वप्न-सी बातों को स्मरण रख सकता था? और स्मरण ही
होता, तो भी कष्टों की इस काली निशा में वह कहने का साहस करता। हाय री
बिडम्बना!
आज मधूलिका उस बीते हुए
क्षण को लौटा लेने के लिए विकल
थी। दारिद्रय की ठोकरों ने उसे व्यथित और अधीर कर दिया है। मगध की
प्रासाद-माला के वैभव का काल्पनिक चित्र-उन सूखे डंठलों के रन्ध्रों से,
नभ में-बिजली के आलोक में-नाचता हुआ दिखाई देने लगा। खिलवाड़ी शिशु जैसे
श्रावण की सन्ध्या में जुगनू को पकड़ने के लिए हाथ लपकाता है, वैसे ही
मधूलिका मन-ही-मन कर रही थी। अभी वह निकल गया’। वर्षा ने भीषण रूप धारण
किया। गड़गड़ाहट बढ़ने लगी; ओले पड़ने की सम्भावना थी। मधूलिका अपनी जर्जर
झोपड़ी के लिए काँप उठी। सहसा बाहर कुछ शब्द हुआ-
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