कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
नहीं महाराज, मुझे मूल्य
नहीं चाहिए।
मूर्ख! फिर क्या चाहिए?
उतनी
ही भूमि, दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की जंगली भूमि, वहीं मैं अपनी
खेती करूँगी। मुझे एक सहायक मिल गया है। वह मनुष्यों से मेरी सहायता
करेगा, भूमि को समतल भी बनाना होगा।
महाराज ने कहा- कृषक
बालिके! वह बड़ी उबड़-खाबड़ भूमि है। तिस पर वह दुर्ग
के समीप एक सैनिक महत्व रखती है।
तो फिर निराश लौट जाऊँ?
सिंहमित्र की कन्या! मैं
क्या करूँ, तुम्हारी यह प्रार्थना....
देव! जैसी आज्ञा हो!
जाओ, तुम श्रमजीवियों को
उसमें लगाओ। मैं अमात्य को आज्ञापत्र देने का
आदेश करता हूँ।
जय हो देव! - कहकर प्रणाम
करती हुई मधूलिका राजमन्दिर के बाहर आई।
दुर्ग
के दक्षिण, भयावने नाले के तट पर, घना जंगल है, आज मनुष्यों के पद-सञ्चार
से शून्यता भंग हो रही थी। अरुण के छिपे वे मनुष्य स्वतन्त्रता से इधर-उधर
घूमते थे। झाड़ियों को काट कर पथ बन रहा था। नगर दूर था, फिर उधर यों ही
कोई नहीं आता था। फिर अब तो महाराज की आज्ञा से वहाँ मधूलिका का अच्छा-सा
खेत बन रहा था। तब इधर की किसको चिन्ता होती?
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