कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
एक घने कुञ्ज में
अरुण और मधूलिका एक दूसरे को हर्षित नेत्रों से देख रहे थे। सन्ध्या हो
चली थी। उस निविड़ वन में उन नवागत मनुष्यों को देखकर पक्षीगण अपने नीड़
को लौटते हुए अधिक कोलाहल कर रहे थे।
प्रसन्नता से अरुण की
आँखे
चमक उठीं। सूर्य की अन्तिम किरण झुरमुट में घुसकर मधूलिका के कपोलों से
खेलने लगी। अरुण ने कहा- चार प्रहर और, विश्वास करो, प्रभात में ही इस
जीर्ण-कलेवर कोशल-राष्ट्र की राजधानी श्रावस्ती में तुम्हारा अभिषेक होगा
और मगध से निर्वासित मैं एक स्वतन्त्र राष्ट्र का अधिपति बनूँगा, मधूलिके!
भयानक! अरुण, तुम्हारा
साहस देखकर मैं चकित हो रही हूँ। केवल सौ सैनिकों
से तुम...
रात के तीसरे प्रहर मेरी
विजय-यात्रा होगी।
तो तुमको इस विजय पर
विश्वास है?
अवश्य, तुम अपनी झोपड़ी
में यह रात बिताओ; प्रभात से तो राज-मन्दिर ही
तुम्हारा लीला-निकेतन बनेगा।
मधूलिका
प्रसन्न थी; किन्तु अरुण के लिए उसकी कल्याण-कामना सशंक थी। वह कभी-कभी
उद्विग्न-सी होकर बालकों के समान प्रश्न कर बैठती। अरुण उसका समाधान कर
देता। सहसा कोई संकेत पाकर उसने कहा- अच्छा, अन्धकार अधिक हो गया। अभी
तुम्हें दूर जाना है और मुझे भी प्राण-पण से इस अभियान के प्रारम्भिक
कार्यों को अर्द्धरात्रि तक पूरा कर लेना चाहिए; तब रात्रि भर के लिए
विदा! मधूलिके!
मधूलिका उठ खड़ी हुई।
कँटीली झाड़ियों से उलझती हुई क्रम से, बढ़नेवाले
अन्धकार में वह झोपड़ी की ओर चली।
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