कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
पथ
अन्धकारमय था और मधूलिका का हृदय भी निविड़-तम से घिरा था। उसका मन सहसा
विचलित हो उठा, मधुरता नष्ट हो गई। जितनी सुख-कल्पना थी, वह जैसे अन्धकार
में विलीन होने लगी। वह भयभीत थी, पहला भय उसे अरुण के लिए उत्पन्न हुआ,
यदि वह सफल न हुआ तो? फिर सहसा सोचने लगी- वह क्यों सफल हो? श्रावस्ती
दुर्ग एक विदेशी के अधिकार में क्यों चला जाय? मगध का चिरशत्रु! ओह, उसकी
विजय! कोशल-नरेश ने क्या कहा था- ‘सिंहमित्र की कन्या।’ सिंहमित्र, कोशल
का रक्षक वीर, उसी की कन्या आज क्या करने जा रही है? नहीं, नहीं, मधूलिका!
मधूलिका!!’ जैसे उसके पिता उस अन्धकार में पुकार रहे थे। वह पगली की तरह
चिल्ला उठी। रास्ता भूल गई।
रात एक पहर बीत चली, पर
मधूलिका अपनी
झोपड़ी तक न पहुँची। वह उधेड़बुन में विक्षिप्त-सी चली जा रही थी। उसकी
आँखों के सामने कभी सिंहमित्र और कभी अरुण की मूर्ति अन्धकार में चित्रित
होती जाती। उसे सामने आलोक दिखाई पड़ा। वह बीच पथ में खड़ी हो गई। प्राय:
एक सौ उल्काधारी अश्वारोही चले आ रहे थे और आगे-आगे एक वीर अधेड़ सैनिक
था। उसके बायें हाथ में अश्व की वल्गा और दाहिने हाथ में नग्न खड्ग।
अत्यन्त धीरता से वह टुकड़ी अपने पथ पर चल रही थी। परन्तु मधूलिका बीच पथ
से हिली नहीं। प्रमुख सैनिक पास आ गया; पर मधूलिका अब भी नहीं हटी। सैनिक
ने अश्व रोककर कहा- कौन? कोई उत्तर नहीं मिला। तब तक दूसरे अश्वारोही ने
सड़क पर कहा- तू कौन है, स्त्री? कोशल के सेनापति को उत्तर शीघ्र दे।
रमणी जैसे विकार-ग्रस्त
स्वर में चिल्ला उठी- बाँध लो, मुझे बाँध लो! मेरी
हत्या करो। मैंने अपराध ही ऐसा किया है।
सेनापति हँस पड़े, बोले-
पगली है।
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