कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
अब कुछ आवश्यक बातें मैं
लिखता हूँ, उन्हें ध्यान से पढ़ो। जहाँ
तक सम्भव है, उनके करने में तुम आगा-पीछा न करोगी - यह मुझे विश्वास है।
मुझे तुम्हारे परिवार की दशा अच्छी तरह विदित है, मैं उसे लिखकर तुम्हारा
दु:ख नहीं बढ़ाना चाहता। सुनो, यह एक 'विल' है जिसमें मैंने अपनी सब सीलोन
की सम्पत्ति तुम्हारे नाम लिख दी है। वह तुम्हारी ही है, उसे लेने में
तुमको कुछ संकोच न करना चाहिये। वह सब तुम्हारे ही रुपये का लाभ है। जो धन
मैं वेतन में पाता था, वही मूल कारण है। अस्तु, यह मूलधन, लाभ और
ब्याज-सहित, तुमको लौटा दिया जाता है। इसे अवश्य स्वीकार करना, और स्वीकार
करो या न करो, अब सिवा तुम्हारे इसका स्वामी कौन है? क्योंकि मैं भारतवर्ष
से जिस रूप में आया था, उसी रूप में लौटा जा रहा हूँ। मैं इस पत्र को
लिखकर तब भेजता हूँ, जब घर से निकलकर जहाज को रवाना हो चुका हूँ। अब तुमसे
भेंट भी नहीं हो सकती। तुम यदि आओ भी, तो उस समय मैं जहाज पर होऊँगा।
तुमसे मेरी केवल यही प्रार्थना है कि 'तुम मुझे भूल जाना'।
यह पत्र पढ़ते ही मृणालिनी की और किशोरनाथ की अवस्था दूसरी ही हो गयी। मृणालिनी ने कातर स्वर से कहा- भैया, क्या समुद्र-तट तक चल सकते हो?
किशोरनाथ ने खड़े होकर कहा- अवश्य!
बस, तुरन्त ही एक गाड़ी पर सवार होकर दोनों समुद्र-तट की ओर चले। ज्योंही वे पहुँचे, त्योंही जहाज तट छोड़ चुका था। उस समय व्याकुल होकर मृणालिनी की आँखें किसी को खोज रही थीं। किन्तु अधिक खोज नहीं करनी पड़ी।
किशोर और मृणालिनी दोनों ने देखा कि गेरुए रंग का कपड़ा पहिने हुए एक व्यक्ति दोनों को हाथ जोड़े हुए जहाज पर खड़ा है, और जहाज शीघ्रता के साथ समुद्र के बीच में चला जा रहा है!
मृणालिनी ने देखा कि बीच में अगाध समुद्र है!
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