कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
“इतना
जल! इतनी शीतलता! हृदय की प्यास न बुझी। पी सकूँगी? नहीं! तो जैसे वेला
में चोट खाकर सिन्धु चिल्ला उठता है, उसी के समान रोदन करूँ? या जलते हुए
स्वर्ण-गोलक सदृश अनन्त जल में डूब कर बुझ जाऊँ?”-चम्पा के देखते-देखते
पीड़ा और ज्वलन से आरक्त बिम्ब धीरे-धीरे सिन्धु में चौथाई-आधा, फिर
सम्पूर्ण विलीन हो गया। एक दीर्घ निश्वास लेकर चम्पा ने मुँह फेर लिया।
देखा, तो महानाविक का बजरा उसके पास है। बुधगुप्त ने झुक कर हाथ बढ़ाया।
चम्पा उसके सहारे बजरे पर चढ़ गयी। दोनों पास-पास बैठ गये।
“इतनी छोटी नाव पर इधर
घूमना ठीक नहीं। पास ही वह जलमग्न शैल खण्ड है।
कहीं नाव टकरा जाती या ऊपर चढ़ जाती, चम्पा तो?”
“अच्छा होता, बुधगुप्त!
जल में बन्दी होना कठोर प्राचीरों से तो अच्छा
है।”
आह
चम्पा, तुम कितनी निर्दय हो! बुधगुप्त को आज्ञा देकर देखो तो, वह क्या
नहीं कर सकता। जो तुम्हारे लिये नये द्वीप की सृष्टि कर सकता है, नई प्रजा
खोज सकता है, नये राज्य बना सकता है, उसकी परीक्षा लेकर देखो तो....। कहो,
चम्पा! वह कृपाण से अपना हृदय-पिण्ड निकाल अपने हाथों अतल जल में विसर्जन
कर दे।”-महानाविक-जिसके नाम से बाली, जावा और चम्पा का आकाश गूँजता था,
पवन थर्राता था-घुटनों के बल चम्पा के सामने छलछलाई आँखों से बैठा था।
सामने
शैलमाला की चोटी पर हरियाली में विस्तृत जल-देश में, नील पिंगल सन्ध्या,
प्रकृति की सहृदय कल्पना, विश्राम की शीतल छाया, स्वप्नलोक का सृजन करने
लगी। उस मोहिनी के रहस्यपूर्ण नीलजाल का कुहक स्फुट हो उठा। जैसे मदिरा से
सारा अन्तरिक्ष सिक्त हो गया। सृष्टि नील कमलों में भर उठी। उस सौरभ से
पागल चम्पा ने बुधगुप्त के दोनों हाथ पकड़ लिये। वहाँ एक आलिंगन हुआ, जैसे
क्षितिज में आकाश और सिन्धु का। किन्तु उस परिरम्भ में सहसा चैतन्य होकर
चम्पा ने अपनी कंचुकी से एक कृपाण निकाल लिया।
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